ना जाने कहाँ से अचानक
किसी सधे हुए शिकारी बिल्ले
की तरह, एक विचार झपटा।
शब्दों के चूहों में भगदड़ मच गई।
कुछ को उसने उठाया,
कुछ को पटका,
किसी के साथ कुछ देर खेला,
किसी को तेज़ नाखूनों से
खरोंच कर लहुलुहान कर दिया।
और फिर बिना कुछ लिए,
बिना कुछ किए,
जिस तरह आया था
वैसे ही अचानक हवा में
धुएँ की तरह गायब हो गया।
थके-मांदे शब्द बेचारे
हक्के-बक्के अधमरे से पड़े,
समझने की कोशिश में हैं,
कि वो क्या था,क्यों आया,
और उन्हें इस तरह
झिंझोड़ कर,चला कहाँ गया?
एक इमारत ताश की
उठते उठते ढह गई।
जाने क्या बात थी….
जो बनते-बनते रह गई।
स्वाती
surekh kavita.
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