तोहफा
ट्रेन में मिली थी मुझे वो।
दुबली-पतली, छोटी बच्ची जैसी, लम्बी चोटी वाली सरदारनी।
नाम था बीबा। उसका नाम बीबा है ,ये मुझे ही नहीं, टिकिट चेकर, आसपास से निकलने वाले यात्री, जिस टॅक्सी से वो लोग स्टेशन आए होंगे, उसका ड्रायवर, यहाँ तक कि, उनका सामान उठाने वाले कुली को भी पता चल चुका होगा।
सुबह-सुबह लुधियाना स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही, मेरे सामने वाली बर्थ पर कुली ने सामान का ढेर लगाना शुरू कर दिया।
पीछे-पीछे माँ बेटी भी आ गईं।
“बीबा, नग गिन ले बेटा, हें बीबा” माँ ने कहा।
बीबा ने गिनना शुरू किया।
“एक दो तीन…. सोलह। ठीक है सब आ गया।”
आमतौर पर इतना सामान लेकर सफर करने वालों से, और उस पर भी इतनी ज़ोर ज़ोर से बात करने वालों से, मुझे बेहद चिढ़ होती है।लेकिन उस दिन उन्हें देख कर मुझे इतनी खुशी हुई, कि यदि उनके पास दस बारह नग और भी होते तो अपनी सीट उन्हें दे कर, मैं सूटकेस पर बैठने को तैयार थी।
इतने साल हो गये सफर करते करते, लेकिन अब भी ट्रेन में बैठने तक एक घबराहट सी बनी रहती है। घर से निकलते समय दो-दो बार टिकिट देखती हूँ, कि कहीं हड़बड़ाहट में रह ही ना जाए। स्टेशन पहुँचने तक रास्ते भर हर सिगनल पर लगता है कि बस, अब तो ट्रेन छूट ही जानी है।
मुसीबत तो ये है, कि इतना टेंशन होने पर भी, चाहे लाख कोशिश करूँ ,पर कभी सही वक्त पर घर से निकल नहीं पाती।
हर बार घड़ी के काटों के साथ दौड़ रहती है।
सफर लंबा हो, तो साथ के मुसाफिर कौन और कैसे होंगे, इसकी भी चिंता रहती है।
जब ट्रेन चलना शुरू करती है, तब जा कर मुझे चैन आता है, कि चलो सब ठीक हुआ।
इस बार भी मुझे विश्वास हो चला था ,कि ट्रेन नहीं मिलेगी। हमेशा की तरह इस बार भी मैने सोचा था, कि जब जम्मू से ही शुरू होती है ट्रेन, तो मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।कुछ जल्दी जा कर, आराम से अपनी जगह पर बैठूँगी।
लेकिन फिर वही कहानी….
एक तो मेरा शॉपिंग करने का उत्साह, और दूसरे जम्मू की भीड़, मेरी जल्दी स्टेशन पर पहुँचने की योजना को चौपट करने के लिए काफी सशक्त कारण थे।
आखिर हमेशा की तरह भागते दौड़ते ट्रेन में सवार हुई ,और सफर शुरू हुआ।
स्टेशन पीछे छूटने पर खयाल आया, कि तीन दिनों के बाद इतनी शांती नसीब हुई है।
अचानक तभी ही एहसास हुआ, कि मैं वाकई बिल्कुल अकेली हूँ। मेरी आसपास की सभी बर्थ खाली थीं।
फिर मुझे बड़ी घबराहट होने लगी। सारी बोगी का चक्कर लगा कर देखा। कुल मिला कर बस पंद्रह-बीस लोग ही थे। जिनमें से कुछ सो चुके थे, और बाकी सोने की तैयारी में थे।
मेरी नींद अलबत्ता पूरी तरह उड़ चुकी थी।
पूना तक का स़फर अकेले…..
बुरे बुरे खयाल आने लगे।
मुझे अब अच्छा खासा डर लगने लगा था। जैसे-तैसे आँखों आँखों में रात कटी।
सुबह-सुबह लुधियाना स्टेशन पर गाड़ी रुकी, और बीबा और उसकी माँ ढेरों सामान के साथ, सामने वाली सीट पर आ बैठे।
उस समय उन्हें देख कर मुझे इतनी खुशी हुई, कि मैं बयान नहीं कर सकती।
“कहाँ तक जा रहे हैं आप लोग?” मैने पूछा।
“पूना तक। बीबा ठीक से देख लिया, सब आ गया ना हें बीबा?”
“हाँ मम्मी, दो दो दफे गिन लिया है।सब ठीक है।”
मैने सीट के नीचे और ऊपर सामान जमाने में बीबा की मदत की।
“बहुत सामान है।” आखिर मुझसे रहा नहीं गया।
“हम लोग पूना शिफ्ट हो रहे हैं ना।” बीबा बोली।
मुझे वो बड़ी प्यारी लगी। उसका नाम तो और भी अच्छा लगा।
“बीबा चाय पीओगी?” मैने पूछा
बीबा अपनी मम्मी की ओर देख कर हँसने लगी।
“हमेशा यही होता है। मम्मी साथ हों ,तो किसी को मेरा नाम पूछने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती। एक तो ये हमेशा इतनी ऊँची आवाज में बोलती हैं, उस पर इनकी हर बात शुरू बीबा से होती है और खत्म भी बीबा पर होती है।”
“क्या करूँ बीबा, आदत पड़ गई है।मुझे तो खयाल भी नहीं आता, कि मैने तेरा नाम लिया है। सच्ची बीबा।” वे झेंप गईं।
“कई बार तो सिर्फ हम दोनों ही आमने सामने बैठ कर बात कर रही होती हैं, फिर भी ये बार बार मेरा नाम लेकर पुकारती रहती हैं।”
“छोड़ ना बीबा, अब कुछ दिनों की ही तो बात है बीss ” वे हँसने लगीं।
“ देख, फिर बीबा कहने वाली थी।”
चाय खत्म होने तक मेरी उनसे अच्छी खासी पहचान हो चुकी थी। अब तक बीबा मुझे दीदी ,और मैं उसकी मम्मी को आँटी कहने लगी थी।
बीबा के पिता आर्मी से रिटायर हो कर पूना में ट्रान्सपोर्ट का व्यवसाय कर रहे थे।उनके सारे सामान के साथ ,वे और बीबा का भाई, पहले ही पूना जा चुके थे। बीबा और उसकी माँ बचाखुचा सामान समेट कर, घर बंद कर, अब जा रहे थे।
“ सारा दिन बीबा-बीबा करने की इतनी आदत हो चुकी है मुझे, हाय रब्बा सोच के ही जी घबराता है, कि इसके जाने के बाद क्या होगा मेरा।” आँटी की आँख भर आई।
“ क्यों, बीबा कहाँ जा रही है?”
“शादी है ना इसकी।ठीक सात महीने बाद है।”
“शादी! इतनी जल्दी? लेकिन ये तो अभी बहुत छोटी सी है।”
“हाँ, छोटी तो है। इस अक्टूबर में ही तो अठारह की होगी। लेकिन वो लोग तो पीछे ही पड़ गये। वैसे तय हुए भी तो बहुत दिन हो गये। कब तक रुकेंगे। उनका कहना भी ठीक ही है एक तरह से।”
“जीते के, यानि परमजीत के और मेरे डॅडी एनडीए से संग संग थे।हम लोग भी बचपन से एक दूसरे को जानते हैं। वो अब लॅफ्टिनेंट है।”
बीबा के चेहरे पर मुस्कुराहट फैल गई।
“ इसके डॅडी को भी बड़ी जल्दी है। पिछले महीने ही सगाई की है। बीबा, ए बीबा, देख ना, फोटो ऊपर हों तो निकाल के दिखा ना दीदी को। हें बीबा।”
बीबा ने बड़े उत्साह से सूटकेस खोल कर एलबम निकाले।
“अच्छी जोड़ी है ना?” आँटी ने पूछा।
“बहुत प्यारी!” बीबा और परमजीत फोटो में बेहद खुश लग रहे थे।
माँ-बेटी ने फोटो में उपस्थित हर व्यक्ति से मेरी पहचान करवाई। बड़ी देर तक बीबा की शादी की बातें होती रहीं। फिर आँटी ऊपर की बर्थ पर जा कर सो गईं।
यूँ तो हम तीनों ही अलग-अलग वजह से रात भर के जागे हुए थे, पर मैं और बीबा बाते करते रहे।
अपनी शादी को लेकर बीबा बहुत ही खुश थी। जीते के, उसके परिवार वालों के, अपने परिवार के जाने क्या-क्या किस्से सुनाती रही। कुछ ही देर में मेरी पलकें बोझिल होने लगीं।
अचानक बीबा ने पूछा
“दीदी, किसी को रुमाल तोहफे में दे दिया जाए, तो क्या सचमुच रिश्ता खत्म हो जाता है?”
“ ऐसा कहते हैं लोग, पर ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं होता।”
मैने उबासी देते हुए कहा।
“लेकिन जब ऐसा मानते ही हैं, तो जान बूझ कर किसी को रुमाल नहीं न देना चाहिए तोहफे में।”
“क्यों? किसने दिया, किसको?” मैने कुछ सतर्क होते हुए पूछा।
बीबा खिड़की से बाहर देखने लगी।
“क्या बात है?” मैने कुछ उत्सुक्ता से पूछा।
“जब हम बिल्कुल निकलने ही वाले थे ना, तब आया था वो। कल शाम को।
कहने लगा, सच में जा रही हो? फिर मेरे हाथों में जबरदस्ती एक पॅकेट थमा दिया।”
बीबा फिर बाहर देखने लगी।कुछ देर बाद बोली
“कहने लगा ,इसमें रुमाल हैं। हर रंग के। कहते हैं रुमाल किसी को तोहफे में दे दो, तो रिश्ता खत्म हो जाता है। अब तू मुझसे कभी ना मिलना। कभी लुधियाने आए तब भी नहीं। बस! इतना ही बोला, और चला गया।”
“दोस्त था तुम्हारा?” मैनें लेटते हुए पूछा
“अच्छी पहचान थी। मतलब दोस्त ही था एक तरह से।उनकी एक छोटी सी ग्रोसरी शॉप है। हमारे घर के बिल्कुल पास ही। मिनी मार्केट होते हैं ना ,उस टाईप की।”
“अब मिनी मार्केट कहो या ग्रोसरी शॉप कहो, परचून की दुकान परचून की दुकान ही रहेगी बीबा।
और लाख खुद को बिजनेस मॅन समझ ले,पर पंसारी का बेटा पंसारी ही रहेगा।समझ ले बीबा।”
ऊपर से बीबा की मम्मी नें झाँका।
“बेवजह दस रुपल्ली के रुमाल दे कर सरदर्द दे गया कमबख़्त। पहले उठा और खिड़की से बाहर फेंक दे वो रुमाल। बोला था ना मत रख साथ में।”
“आप सो क्यों नहीं जाती?” बीबा चिढ़ कर बोली।
“ सो ही तो रही हूँ।” वे करवट बदल के लेट गईं।
बीबा सीट के नीचे से सूटकेस निकालने लगी।मैने सोचा शायद माँ की सलाह मान कर सचमुच रुमाल निकाल कर फेंकने जा रही है।
लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। चुपचाप फोटो एलबम वापस रख दिए।
उसका चेहरा देख कर मुझे उस छोटी सी बच्ची पर दया आने लगी।
सचमुच पंसारी का बेटा बहुत होशियार था। एक आध घड़ी या चांदी की तश्तरी उपहार में दे जाता, तो बीबा कभी सोचती भी नहीं उसके बारे में । शायद बिना खोले ही किसी और को टिका देती।
लेकिन वो तो रुमाल दे गया।
आँटी ने फिर नीचे झाँका।
“ बीबा, जीता अच्छा लड़का है। बड़ी कदर करता है तेरी। और तेरे कहने पर ही तो शादी तय करी थी ना । हें बीबा? फिर ये क्या नाटक लगा रखा है तूने?”
“मैने आपसे कुछ कहा क्या?” बीबा चिढ़ कर बोली।
“अच्छा ही कहा जो नहीं कहा, लेकिन बीबा, जीता उस पंसारी से तो लाख गुना…”
“मम्मी आप गलत समझ रही हैं। दीदी कसम से मैने कभी उसके बारे में सोचा तक नहीं। घर के सामने दुकान थी। आते जाते रोज मिल जाता था। अच्छा लड़का था। दो मिनिट बात कर लेती थी बस। और कुछ भी नहीं।”
मुझे अक्सर इस बात पर हैरत होती है,कि सफर में मिले अजनबियों से लोग बेहिचक कितनी व्यक्तिगत बातें कर जाते हैं।
“अच्छा लगता था तुम्हें?” मैने पूछा।
“आप समझ रही हैं, वैसा कुछ भी नहीं है दीदी। कसम से।” बीबा परेशान हो गई।
“कोई अच्छा लगने में कोई बुराई नहीं है बीबा। अच्छा तो कोई भी लग सकता है।”
“हाँ, कोई अच्छा लगना अच्छी बात है। और उस अच्छे से शादी ना करना और भी अच्छी बात है। नहीं तो मिनी मार्केट ही हो जाती है ज़िंदगी।”
“मम्मी..! अब तो हद ही कर रहे हो आप” बीबा ने हैरत से कहा।
“सोने की कोशिश करो तुम लोग भी अब।” उन्होने मूँह पर चादर खींच ली।
“दिमाग है या क्या है इनका?” बीबा ने एक लम्बी साँस ली।
“और मैं भी ना, बिना वजह उसके बारे में सोच रही हूँ। जबकि मेरे पास इतना है सोचने को।”
उसने अपने ही सिर पर एक चपत जमाई।
“ खोती बीबा! रोती बीबा। बचपन में मैं बड़ी पगली और रोतली थी। घंटों लगते थे मुझे समझाने में। तब सब मुझे खोती बीबा,रोती बीबा चिढ़ाते थे।”
“जीते ने कहा है, कि हनीमून पे किधर जाना है ये मैं ही तय करूँ। और मैने अभी तक कुछ सोचा भी नहीं। वो रोज फोन करता है तब पूछता है। शिमले में तो नवम्बर में बड़ी ठंड होगी। चाची कह रहीं थी कि फॉरेन जाओ…..”
वो बड़ी देर तक जाने क्या-क्या बड़बड़ाती रही। दुपट्टा उसने कानों पर लपेट लिया। मैने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी, और कुछ देर में वो अपने आप ही चुप हो गई।फिर खिड़की से बाहर देखने लगी।
मैं लेटे लेटे उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश कर रही थी। उसके चेहरे पर उस समय कोई भाव ही नहीं थे। वो शायद अपने हनीमून के बारे में सोच रही थी। या सिर्फ भागते हुए खेत देख रही थी…
अचानक उसने मेरी ओर देखा।
“फिर भी उसे ऐसा तो नहीं ना करना चाहिए था। कुछ भी दे देता, पर रुमाल….?
वह फिर खिड़की से बाहर देखने लगी।
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