बच्चे जब छोटे थे, तब उनके लिए बहुत सी कविताएँ और कहानियाँ लिखीं थी।
कई कहानियों के हीरो वे ही होते, और बहुत सी कविताओं में उनका नाम होता।
उन्हें बहुत मज़ा आता। बार-बार अपनी ही कहानी सुनना चाहते। खुद की कविताएँ भी उन्हें ज़बानी य़ाद थीं। तब की ही कुछ कविताएँ, जो उन्हें बेहद पसंद थी।
‘बुढ़िया और चोर’ की बुढ़िया सच तो मेरे बचपन की प्रिय कविता ‘चल मेरे मटके वाली’ सहासी बुढ़िया ही है।
मेरी कविता वाली बुढ़िया अचानक ही मुझे उत्तराखंड के बनियाकुंड गाँव में एक बुगियाल में मिल गई। उतनी ही सहासी ,अकेली लेकिन खुशमिज़ाज और खूबसूरत इतनी कि क्या कहूँ। बस सपनों की बुढ़िया थी।
बुढ़िया और चोर
बुढ़िया के घर घुसा चोर, घर में बस बुढ़िया कोई ना और, जान के बुढ़िया को कमज़ोर, बुढ़िया के घर घुसा चोर। चोर था पूरा पहलवान, सूरत से लगता था शैतान। उसकी नाक बहुत थी मोटी, नीयत भी उसकी थी खोटी। बुढ़िया पतली दुबली सी, बुढ़िया की आँखे निकली सी। बुढ़िया की गर्दन अकड़ी सी, बुढ़िया थी सूखी लकड़ी सी। कमज़ोर उसे कहते थे लोग, पर बुढ़िया ना थी डरपोक। उसके पास था एक मटका, वो चोर के सिर पर दे पटका। मटके में था ठंडा पानी, चोर को आ गई याद नानी। भीगा चोर गिरा फिसलकर, ठंड से लगा काँपने थर-थर। फूटा मटका मच गया शोर, बुढ़िया चिल्लाई चोर-चोर। आवाज़ से सारा मुहल्ला जागा, और डर के वो चोर भी भागा। फिर बुढ़िया ने किया काम, चोरों से बचने का इंतज़ाम। ताला एक मंगाया मोल, असली लोहे का गोल-मटोल। दरवाजे पर ताला डाला, और एक काला कुत्ता पाला। कुत्ता करता था रखवाली, बुढ़िया ने फिर खटिया डाली। तब आराम से सोई बुढ़िया, नींद भी उसको आई बढ़िया। बुढ़िया ने यह सबक सिखाया, मन की ताकत तन से ज्यादा। स्वाती
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