कोयला भया ना राख

पत्र का आखरी भाग अवनि ने फिर से पढ़ा।

“शादी में तुम सभी आ पाते तो अच्छा होता। प्रिया मौसी तो  तुम्हारे अकेले आने से बहुत दुखी होगी, उसके घर की यह पहली ही शादी है। उस पर संजू ने लगभग चालीस लड़कियाँ देख कर ये लड़की पसंद की है। लेकिन क्या करें? अब परीक्षा तो ऐसी मजबूरी है कि कुछ किया भी नहीं जा सकता। आजकल रोज दोपहर को मैं उसके घर शादी की तैयारी में मदद करने जाती हूँ।

निकलने से पहले फोन करना। पापा तुम्हें लेने स्टेशन पर आएँगे। बच्चों को प्यार देना।

तुम्हारी माँ

p.s. जामुनचाचा नहीं रहे।

‘जामुनचाचा नहीं रहे।’ यह एक वाक्य उसके दिमाग में हलचल मचा गया। जामुनचाचा के तो होने की भी उसे पिछले कई सालों से खबर नहीं थी।

अब वो नहीं रहे!

माँ का यह खबर, इस तरह लिखना उसे बेहद खटका। माँ को जामुनचाचा कभी फूटी आँख भी नहीं सुहाए। उनके प्रति अपनी चिढ़ को माँ ने कभी छिपाया भी नहीं। लेकिन फिर भी उनकी मृत्यु की खबर इस तरह चलते चलते लिखना …. उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगा।

“इतना क्या लिखा है भई एक पेज की चिट्ठी में? कब से पढ़े जा रही हो।” अखिल ने पूछा।

“जामुनचाचा नहीं रहे।”

“कौन?”

“एक थे…. पापा के दोस्त।”

“क्या हुआ था?”

“पता नहीं, वो नहीं लिखा माँ ने।”

“बड़ा मज़ेदार नाम है, जामुन।” अखिल बोला।

“मेरा ही दिया हुआ है। बहुत छोटी थी मैं तब। मुझे तो याद नहीं,पापा बताते हैं। उनके घर में जामुन का बहुत बड़ा पेड़ था। बहुत बढ़िया जामुन थे। बहुत सारे जामुन ले कर आया करते थे वो। मैं इंतज़ार करती रहती थी। जाने कब मैने उन्हें जामुनचाचा कहना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे सभी उन्हें जामुनचाचा ही कहने लगे। उनके पेड़ में कीड़ा लग गया था। फिर वह पेड़ सूख गया,कटवा दिया गया। लेकिन जामुनचाचा का नाम रह गया। ये नाम तब तक इतना प्रचलित हो चुका था कि वे खुद भी अपने-आप को जामुनचाचा ही कहते थे।”

“असली नाम क्या था उनका?”

“पता नहीं। सरनेम बक्षी था, बस इतना पता है।एक बार जब मैने उनसे उनका असली नाम पूछा, तो कहने लगे कि तुम्हें जामुनचाचा नकली है, ऐसा क्यों लगता है?”

“पर वह नाम तो मेरा रखा है, मैनें कहा। तो कहने लगे कि सभी नाम किसी दूसरे ने रखे हुए ही तो होते हैं।देखो साला अपना नाम तक चुनने की आज़ादी नहीं है यहाँ किसी को।”

“ उनका कोई भी वाक्य यार और साला इन दो शब्दों के बिना पूरा नहीं होता था। बड़े अजीब थे वो। माँ को तो उनसे सख्त नफरत थी।”

“क्यों?” अखिल ने पूछा।

“बहुत गंदे रहते थे। आम तौर पर नशे में धुत ही रहते।एकदम पक्के शराबी थे।हालांकि बिलकुल निरुपद्रवी थे। उनके जाने के बाद भी बड़ी देर तक आस-पास शराब की बू रहती थी।”

“शायद यही माँ से बरदाश्त नहीं होता होगा। कभी भी आ जाते।वक्त उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखता था। आते और इतना ही पूछते कि हैं क्या?”

“यदि पापा घर पर नहीं होते, तो भी खड़े ही रहते। शायद उनके पास जाने के लिए कोई दूसरी जगह ही नहीं थी। फिर कुछ देर के बाद माँ तंग आ कर, उनके लिए बाहर आंगन में ही एक कुर्सी भिजवा देतीं। पेड़ के नीचे बैठ जाते। पापा की अनुपस्थिती में भी उनका इस तरह हमारे घर में धूनि रमा कर बैठना माँ को सख्त नापसंद था। सामान्य शिष्टाचार के नियमों के खिलाफ था यह। लेकिन उन्हें माँ के इस बर्ताव से कभी कोई फर्क नहीं पड़ता था। यदि कभी माँ चिढ़ के उन्हें कुर्सी नहीं देती तो बड़ी देर तक वैसे ही ज़मीन की ओर देखते खड़े रहते। और जब खड़े-खड़े थक जाते तो खुद ही जाकर पेड़ के नीचे, सीधे ज़मीन पर ही बैठ जाते।”

“लोग क्या कहेंगे, ये सोच कर माँ कुर्सी भिजवा देतीं। उस हालत में चाय पानी कुछ पूछना भी बेकार ही होता। कुछ बोलते तक नहीं। बस वैसे ही घंटों बैठे रहते। उनकी अधखुली आँखों से ये भी पता नहीं चलता कि वे  जाग रहे हैं या सो रहे हैं। हम लोग वहीं आस-पास खेलते रहते, लेकिन उनकी उपस्थिती का हमें कभी एहसास भी नहीं होता। बगीचे के पड़ों की तरह ही उनका अस्तित्व था।”

आते तो रोज आते रहते और फिर अचानक एक दिन गायब हो जाते, तो ऐसे गायब होते कि महीनों उनका पता नहीं चलता।

“पापा से उनका कैसा रिश्ता था, ये मेरी समझ में कभी नहीं आया। मतलब मैनें सोचा ही नहीं इस बारे में। लेकिन पापा के और सभी दोस्तों से ये बिल्कुल अलग थे। मैनें कभी भी पापा को और दोस्तों की तरह उनसे गप्पें लगाते नहीं देखा। कई बार तो पापा उनके सामने बैठ कर अपना काम करते रहते या अखबार पढ़ते और वो सामने चुपचाप थोड़े जागे, थोड़े सोए से बैठे रहते। कभी पापा एक-आध सवाल पूछ लेते, तो भी जवाब नहीं देते।”

“कभी कभार भूले-भटके एक-आध दिन ऐसा भी आता कि जब वो नशे में नहीं होते और साफ सुथरे भी होते। दाढ़ी भी बनी हुई होती। तब वो चाय भी पीते और बहुत बातें भी करते।”

मज़े की बात तो ये है कि मुझे उनमें कभी भी कुछ भी असामान्य नहीं लगा। उनकी आदत ही थी हमेशा से।जैसे बाहर आँगन में हमेशा से एक नीम का पेड़ था,रास्ते के किनारे एक पुलिया थी,घर के किसी कोने में बिना वजह एक टूटी कुर्सी पड़ी थी, वैसे ही एक जामुनचाचा थे। इन बातों के बारे में कभी कोई सोचता है क्या? वो तो होती हैं, बस!

कई बार तो मैं बेधड़क भीतर जा कर माँ को बताती कि जामुनचाचा आए हैं, बिल्कुल आऊट हैं ।बाहर ही कुर्सी दे रही हूँ।”

“करते क्या थे? नौकरी धंधा कुछ? पढ़े लिखे थे क्या?” अखिल ने पूछा।

“सिविल इंजिनियर थे। सरकारी नौकरी थी तो, काम क्या और कैसे करते थे भगवान जाने,लेकिन नौकरी तो थी।”

“घर के लोग कुछ नहीं कहते थे?”

“शादी नहीं की थी। घर में बूढी माँ थी बस। उनके देहांत के बाद न जाने कहाँ से एक दूर का रिश्तेदार आ गया था। उसे सपरिवार रख लिया था अपने घर में।”

“हुआ क्या था? मृत्यु कैसे हुई?”

“पता नहीं। और कुछ भी तो नहीं लिखा।”

“खैर, अब जा ही रही हो, तो पता चल जाएगा।तैयारी हो गई सारी? सुबह की गाड़ी है। बच्चों का क्या कब करना होता है? किसे कब कहाँ छोड़ना है, कहाँ से लाना है, ये सब ठीक से लिख कर फ्रिज पर लगा दो।”

अवनि ने कुछ देर के लिए जामुनचाचा का विचार दिमाग से झटक दिया और काम में लग गई।

अगले दिन ट्रेन में बैठने तक वह अखिल और बच्चों को हर पाँच मिनिट में कोई ना कोई सूचना देती रही।

हालांकि उन लोगों ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की, कि कम से कम चार पाँच दिन तो वे उसके बिना किसी तरह जी ही सकते हैं। लेकिन उसका उन पर विश्वास करने का मन नहीं हो रहा था।

गाड़ी चलने लगी तो उसने आँखें मूँद लीं। सुबह साढ़े तीन बजे से उठी हुई थी, सोचा कुछ नींद निकाल ली जाए। आँखें बंद करते ही उसके ज़हन में जामुनचाचा की तस्वीर उभर आई।

उसे बेहद अजीब लगा। इतने साल…..

अब तो वह खुद छत्तीस साल की हो गई है। इतने ही सालों से वह जामुनचाचा को जानती है.. थी। लेकिन कितना कम मालूम है उनके बारे में।

वह शायद दस साल की थी तब। रविवार की सुबह थी। पापा महीने की रद्दी कबाड़ी को बेच रहे थे। हर महीने के पहले रविवार का निश्चित कार्यक्रम था वह।

अवनि को सब कुछ ऐसे याद आने लगा, जैसे अभी कल की ही बात हो।इतने साल उसे कभी यह एहसास ही नहीं था कि जामुनचाचा से जुड़ी कोई भी याद उसके दिमाग के किसी कोने में इस तरह छिपी बैठी होगी।

उस दिन जामुनचाचा ने बिल्कुल नहीं पी रखी थी।पूरे होश में थे। उनका कहीं बाहर ट्राँसफर हो गया था। पूरा एक महीना वहाँ गुजार कर लौटे थे।पापा को वहाँ के किस्से सुना रहे थे।

अवनि ने रद्दी के ठेले पर रखी दूसरी किताबें छेड़ना शुरू किया। कोई पुरानी ,फटी किताब उठाती, जोर से उसका नाम पढ़ती। तुरंत उस पर अपना मत प्रदर्शित करती कि उसे किसी ने क्यों बेचा होगा।दूसरी तरफ पटकती।फिर एक किताब…

“अरे वाह! चंद्रकांता, ये तो अच्छी हालत में है। कहीं से नहीं फटी। नाम भी अच्छा है। किसी ने क्यों फैंक दिया होगा?”

“वो एक बूढ़े बाबा मर गये। अलमारियाँ भर भर के किताबें छोड़ गये थे। लड़कों-बच्चों को पढ़ने की फुर्सत नहीं। तो रख कर करेंगे क्या? निकाल दिया रद्दी में। कोई कीमत नहीं मिलती ऐसी रद्दी की। लिफाफे भी नहीं बनते इतनी पुरानी किताबों के।” कबाड़ी ने बताया।

“पापा इसमें से मैं कुछ रख लूँ क्या?” अवनि ने पूछा

“हाँ चाहे जो रख लो।” कबाड़ी बोला।

जामुनचाचा भी उत्सुक्ता से किताबें देखने लगे। अवनि के साथ-साथ उन्होंने भी कुछ किताबें अलग रखना शुरू कर दिया।

अवनि किताब उठाती, जोर से ऐलान करती हुई सी उसका नाम पढ़ती और पूछती,

“जामुन चाचा, ये चाहिए क्या?”

“मुगलकालीन इतिहास भाग एक। चाहिए”

“नहीं।”

“गीतांजली, चाहिए?”

“नहीं।”

“इसका तो कवर ही फटा है। अरे ये तो किताब नहीं डायरी है। कितनी गिचमिड़ लिखाई है।”

अवनि ने पन्ने पलटना शुरू किया और जोर से हँस पड़ी।

“देखिए, ये हिसाब की डायरी है, लेकिन पीछे शेरो शायरी लिखी है।”

“क्यों किसी की डायरी पढ़ती है। मत पढ़।” पापा ने डाँटा।

पर अवनि कहाँ सुनने वाली थी।

“बड़ा मजेदार है। सुनिए, मैं ज़िंदगी से पूछ रहा हूँ अजब सवाssल

मैं ज़िंदगी से पूछ रहा हूँ अजब सवाssल”

“अब आगे बोल।” जामुनचाचा झल्लाए।

“मैं ज़िंदगी से पूछ रहा हूँ अजब सवाल

वो कौन था जो मेरे बदन से निकल गया।”

“भूत था।” अवनि खिलखिला कर हँस पड़ी

“जान निकल गई बाबाजी की। और क्या?” कबाड़ी ने भी अपना मत प्रदर्शित किया।

अचानक जामुनचाचा ने उसके हाथ से वह डायरी झपट ली।

कुछ देर तक वे उस शेर को पढ़ते रहे।फिर टर्र से वह कागज फाड़ कर निकाला, तह करके जेब में डाल lलिया।

बाकी डायरी के पिछले कुछ पन्ने पलटे और उसे वापस ठेले पर डाल दिया।

ट्रेन किसी स्टेशन पर रुकी।

अवनि को ये सोच कर बेहद आश्चर्य होने लगा कि उसे या पापा को जामुनचाचा की कोई भी बात कभी अजीब नहीं लगती थी।एक ना दो, ना जाने कितनी छोटी-बड़ी बातें। उसके दिमाग में मानों बरसों से बंद खिड़कियाँ खुलने लगीं।

एक बार नशे में धुत आए तो सिर से खून बह रहा था। जाने कहाँ गिर पड़े थे।वह डर के मारे चीखने लगी।

माँ-पापा दौड़े। लेकिन जामुनचाचा बिल्कुल शांत थे। पापा ने जेब से रुमाल निकाल कर उनके सर पर बांधा। बहुत बड़ा घाव था।

बाद में पापा बहुत दिनों तक मज़े ले कर ये किस्सा सुनाया करते थे कि किस तरह बिना एनेस्थीशिया के जामुनचाचा को टाँके लगे। उस समय वह इतने धुत थे कि इस सारे कांड की खबर उन्हें अगले दिन नशा उतरने पर हुई। चोट कहाँ और कैसे लगी ये कभी पता नहीं चल सका।

उसे य़ाद करके भी शर्म आई कि तब उन्हें वह टूटे-फूटे जामुनचाचा कह कर चिढ़ाती थी। वो सिर्फ मुस्कुरा देते।

ऐसा कैसे हो सकता है कोई आदमी, ये सवाल पहली बार उसके मन में उठा।

पापा हमेशा की तरह स्टेशन पर उसकी गाड़ी पहुँचने से पहले पहुँच गये थे।

गाड़ी में बैठते ही अवनि ने पहला सवाल पूछा,

“जामुनचाचा को क्या हुआ था?”

“सिरोसिस, और क्या हो सकता था?”

“बड़े अजीब थे ना वो?”

“हूँss.”

“पापा, वो ऐसे क्यों थे?”

“अब जैसे थे, वैसे थे।” पापा का जवाब हर व्यक्ति के लिए यही होता है।

“लेकिन फिर भी। आपके तो बहुत अच्छे दोस्त थे। आपको तो उनके बारे में सब पता होगा।”

“हूँss।”

अवनि चुपचाप पापा के कुछ बोलने का इंतज़ार करती रही।

बड़ी देर बाद पापा बोले,

“आज तेरहवा दिन है उसका। पिछले साल एक परिचित की मृत्यू के बाद दाह-संस्कार के लिए हम लोग शमशान गये थे।वहाँ अचानक मुझे ना जाने क्या सूझी, मैने उससे कहा कि तेरी हालत देख कर लगता है कि तेरे क्रिया कर्म के लिए भी मुझे जल्दी ही यहाँ आना पड़ेगा। कोई अंतिम इच्छा हो तो अभी ही बता डाल।”

“तो बड़ा खुश हो गया।कहने लगा, हाँ यार वो साला तो सब तुझे ही करना पड़ेगा। यार तू एक काम करना।यहाँ पास ही साली एक दारू की दुकान है।उसके बाहर साला एक भिखारी बैठता है। भीख भी पट्ठा दारू की माँगता है।”

“तू इतनी दूर पीने आता है? मैने हैरत से पूछा। तो कहने लगा कि आजकल देसी से ही काम चलाना पड़ता है।लेकिन इसकी अच्छी होती है।खैर ये बात छोड़ो।तुझे बताने की वजह ये है कि मेरे मरने के बाद इतना करना कि वो बस स्टॉप के पास भजिए की टपरी है ना, वहाँ से ढाई सौ ग्राम भजिए और यहाँ से एक बोतल बस! इतना उस भिखारी को दे देना। गरीब साला एक दिन ऐश करेगा और मुझे दुआ देगा।और मेरी कोई इच्छा नहीं है। उस साले भिखारी की भी आखरी इच्छा लगे हाथ पूरी हो जाएगी।”

“आप सचमुच करेंगे ऐसा?” अवनि जवाब जानती थी फिर भी उसने पूछा।

“हाँ। तुम्हें घर छोड़ कर वहीं जा रहा हूँ।”

“उनके घर के लोग? उनका क्या ?”

“पता नहीं, और मैं जानना भी नहीं चाहता। वैसे भी इस बात से दूसरे किसी का संबंध ही नही है।”

अवनि को छोड़ पापा तुरंत चले गये।

“माँ, तुम्हें पता है पापा कहाँ गये हैं?” अवनि ने चाय पीते हुए पूछा।

“ हाँ, जामुनचाचा की तेरहवी करने गये हैं। मैने तो कहा था कि मैं पूरा खाना ही बना देती हूँ। पर नहीं माने। बोले उस स्टेशन वाली टपरी के भजिए ही चाहिए बस। तुम्हें पता है जामुनचाचा की आखरी इच्छा क्या थी? एक बार..”

“हाँ, पापा ने अभी बताया।” उसने बीच में ही टोका।

“फिर भी मैनें एक कम्बल भेज ही दिया उस भिखारी के लिए।हालांकि मुझे ऐसे शराबियों से सख्त नफरत है, लेकिन फिर भी मृत व्यक्ति के नाम पर कुछ तो ढंग का दान दिया जाए ना।”

“तुम उनका परलोक सुधारने की कोशिश कर रही हो क्या?” अवनि ने हँस कर पूछा।

“उसका क्या लोक और क्या परलोक, वो तो जीते जी भी नर्क की आग में ही जलता रहा।”

“माँ, तुम्हें जामुनचाचा कभी भी बिल्कुल सहन नहीं होते थे ना।”

“हाँ।” माँ ने बेझिझक जवाब दिया।

“लेकिन क्यों? बेचारे से थे बिल्कुल।वो हमेशा से ऐसे ही थे क्या? मतलब जब से तुम उन्हें जानती थी , तब से?”

“नहीं, मेरी शादी हुई तब तो अच्छा भला था।तभी तो इंजिनियर बना था। माँ बेचारी बड़ी अच्छी थी। अक्सर मुझसे मिलने आ जाया करती थी।”

“तब भी पीते थे क्या? मैने तो हमेशा उन्हें शराबी ही देखा है।”

“तुम बहुत छोटी थीं, जब वो हादसा हुआ था। उसके बाद ही पीने लगा”

“क्या हुआ था?”

“अब क्या बताऊँ, बड़ी शर्मनाक बात है।”

“बताओ ना।”

“अपनी सगी मौसेरी बहन से प्यार हो गया था उसे।घर में जब पता चला तो बहुत हंगामा हो गया।ये तो ज़िद पर अड़ गया कि शादी करूँगा तो उससे ही। उसकी शादी की बात चल रही थी कहीं। पर वो पगली भी तो इससे ही शादी करना चाहती थी।इसकी माँ ने सुना तो धक्के से खटिया पकड़ ली। बात ही इतनी भयानक थी।”

“इतना भी क्या भयानक है।कितने लोगों में बुआ के लड़के से शादी होती है। मेरी एक साउथ इंडियन सहेली के पिता तो उसके सगे मामा हैं।” अवनि ने कहा।

“मुझे तो वो भी नहीं ठीक लगता। सोचो जो लड़की सगी मौसी की बेटी है। बचपन से राखी बाँध रही है, वह तो सगी बहन जैसी ही हुई ना।” माँ तैश में आकर बोली।

“तुम भी इतने सालों से अभी तक नाराज हो इस बात पर?” अवनि ने पूछा।

“सच पूछो तो हूँ। कितनी ज़िंदगियाँ बरबाद हुई इनकी ज़िद से। कोई एक भी समझदार होता, तो कितना अच्छा होता। उसके घर तो बवंडर खड़ा हो गया। दोनों को डाँटना, मारना ,समझाना सब हुआ। मिलने पर पाबंदी लगा दी गई। फिर वर्षा की शादी तय कर दी उसके पिताजी ने।”

“तुम जानती थी उसे?” अवनि ने आश्चर्य से पूछा। इतने सालों में वर्षा का जिक्र भी नहीं हुआ था कभी उसके सामने।

“हाँ, अच्छी प्यारी सी लड़की थी। मुश्किल से उन्नीस साल की रही होगी तब वो। हमेशा इनके घर में ही दिखती थी।”

“अब कहाँ है?”

माँ ने ऊपर की ओर उँगली दिखाई।

“क्या?”

“जब जामुनचाचा को खबर मिली कि उसकी ज़बरदस्ती शादी तय कर रहे हैं, तो तनतनाता हुआ उसके घर पहूँच गया। उसके पिता को आशंका थी ही। उन्होने पहले समझाने की कोशिश की। ये कहने लगा कि चाहे तो वो दोनों ज़िंदगी भर कुवाँरे रह लेंगे, लेकिन उसकी किसी दूसरे से शादी ना करें। लेकिन वर्षा तो कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। इसके साथ घर छोड़ने पर उतारू हो गई। बात बढ़ती गई तो उसके पिता भी गुस्से में आ गये। वर्षा को पकड़ कर किचन में बंद कर दिया उन्होंने। और इसे डाँटने, धमकाने लगे।”

“फिर?” अवनि साँस रोके सुन रही थी। उसने जामुनचाचा में गलती से भी कभी थोड़ा भी गुस्सा या आक्रामकता नहीं देखी थी। वो तो हमेशा से बेचारे ही लगते थे।

“फिर अचानक किचन से वर्षा के चीखने चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। पहले तो किसी ने ध्यान नहीं दिया। बाहर पहले ही झगड़ा चल रहा था। जामुनचाचा दरवाजा खोलने की कोशिश करने लगा तो छीना-झपटी, धकेला-धकेली होने लगी। फिर यही चिल्लाया कि जलने की बू आ रही है। दरवाजा खोलने दो। तब जा कर वो लोग भी होश में आए। दरवाजा खोलने लगे, तो खुला ही नहीं, अंदर से बंद था। जामुनचाचा ने ही धक्के मार मार के दरवाजा तोड़ा। वर्षा ने खुद पर घासलेट डाल कर आग लगा ली थी। उस आग को बुझाने में इसके भी दोनों हाथ बुरी तरह झुलस गये थे। वैसे ही उसे उठा कर अस्पताल भागा, लेकिन वो बच नहीं सकी।”

“बाप रे!” अवनि ने सिहर कर आँखें बंद कर लीं।

“किसी ने सोचा भी नहीं था कि इस फसाद का अंत इतना भयानक होगा। ये भी कई दिनों तक अस्पताल में रहा। नर्वस ब्रेकडाऊन। फिर नौकरी करने दूसरे शहर चला गया। कई महीनों तक कोई खबर नहीं थी। वापस आया तो पहचानना मुश्किल था।पक्का शराबी हो गया था।”

“कोई पूछने वाला भी नहीं था। उसकी माँ तो बेचारी खुद ही इस सदमें से उबर नहीं पाई कभी। खुद की कोई बेटी नहीं थी,इसलिए बहन की इस तीसरी बेटी को बड़े शौक से बचपन से ही अपने पास रख लिया था। बहुत प्यार था उसे वर्षा से। उस पर भी बहुत दोषारोपण हुआ। बेटे की हालत देख कर तो और भी ढह गई। साल भर में ही चल बसी। वर्षा का परिवार भी जाने कहाँ चला गया।”

“फिर?”

“फिर क्या? इसे तो कोई पूछने वाला भी नहीं रहा।”

“पापा ने कभी समझाने की कोशिश नहीं की?”

“सच पूछो तो जितनी करना चाहिए थी,उतनी नहीं की। तुम तो पापा की आदत जानती हो। उनके हिसाब से तो जो जैसा है वैसा है। उन्हें किसी से कोई शिकायत ही नहीं होती। बाकी दोस्तों ने भी समझाया। कुछ तो देवदास कह कर भी चिढाते थे। लेकिन मुझे लगता है उससे वो चिढ़ने की बजाय चढ़ ही जाता था। शायद वो खुद भी अपने आप को देवदास समझने लगा था।तुम्हें पता नहीं उस जमाने में क्या क्रेज़ थी देवदास की। एक दो दफा आत्म हत्या करने की कोशिश भी की, लेकिन कामयाब नहीं हुआ।फिर उस चक्कर में नहीं पड़ा। तब से बस ऐसा ही था जैसा तुमने हमेशा उसे देखा।”

“फिर भी तुम्हें उन पर दया आने की बजाय गुस्सा आता था?”

“और नहीं तो क्या? तुम्हारे पापा का कहना था कि मैं उसे समझने की कोशिश करूँ।लेकिन सचमुच ऐसी बातें हमेशा ही मेरी समझ से बाहर रही हैं।मैं कोई इतनी पत्थरदिल भी नहीं हूँ।लेकिन अपनी बहन को वैसी नज़र से देखना। सोचो कल को तुमने कहा होता कि तुम प्रिया के संजू से शादी करना चाहती हो।छी…. । विचार भी कितना घिनौना है। फिर भी जो कुछ उसके और वर्षा के साथ हुआ नहीं होना चाहिए था। बहुत ज्यादा बुरा हुआ।“

माँ ने एक लम्बी साँस ली।

“चलो मैं यह मानने को तैयार हूँ कि इंसान है, मिट्टी का पुतला है।गलती हो ही जाती है।चलो ये भी माना कि तुम्हे उससे बेहद प्यार था। जिस तरह तुम्हारी आँखों के सामने उसकी मौत हुई, वो दिल दहला देने वाला हादसा था। लेकिन तुम उसके बाद कभी सम्हलने की कोशिश ही ना करो? शादी नहीं की। जीवन भर अकेला रहा उसकी याद में। लेकिन कैसे? नशे में धुत! सारी वेदनाओं,संवेदनाओं से परे।

क्या मतलब रहा इस सबका ? बस मर नहीं पाया इस लिए ज़िंदा रहा। लेकिन कैसे? यदि उसकी याद में ही जीवन बिताना था तो और भी कई बेहतर तरीके हो सकते थे।लोग क्या-क्या नहीं करते अपने प्रियजनों की स्मृति में। किसी के काम आया होता कभी, तो लोग इसके बाद भी दोनों को याद करते।लकिन उसे तो इन सब बातों से कोई मतलब ही नहीं था।”

“मैने बहुत बार समझाने की कोशिश की। चुपचाप बैठ कर सुन लेता था। हर बात पर सर हिला देता था।लेकिन मेरी आवाज भी उस तक पहुँचती थी या नहीं पता नहीं।भगवान के दिए जीवन को इस तरह नष्ट किया, मानों भगवान से ही बदला ले रहा हो।”

“भगवान से या खुद से?” अवनि चाय के खाली कप को हाथ में घुमाती बैठी रही।

“अस्पताल में भरती था, तब पापा रोज सुबह शाम जाते थे मिलने। लेकिन मरा तब बिल्कुल अकेला था। वो जो  एक दूर का भाई रहता था उसके घर में, वो एक बार झाँकने भी नहीं आया। अपना घर पहले ही उसके नाम कर दिया था जामुनचाचा ने, इस वजह से उसे बेच कर नहीं पी पाया। वरना तो फूटी कौड़ी नहीं थी जेब में। वैसे उस भाई को भी क्या कहा जाए। घर के लालच में ही सही, उसने इतने साल सहा था इसे। उसके बदले में उसने इतना तो किया कि जब वो घर पर ही बेहोश हो गया तो पापा को खबर दे गया।”

“अस्पताल का बिल भी पापा ने ही चुकाया। कहने को ये एक खाली पर्स था उसकी जेब में।”

माँ ने उठ कर एक पुराना सा पर्स अवनि के सामने ला कर रख दिया।

अवनि बड़ी देर तक उस घिसे हुए चमड़े के पर्स को देखती रही। फिर उसने उसे खोल कर उलट दिया। भीतर से एक दस रुपये की नोट, कुछ सिक्के और एक धुला हुआ फोटो बाहर गिरे। फोटो देख कर कुछ भी समझ पाना मुश्किल था। शायद कभी वह जेब में रह गया था और कपड़ों के साथ ही धुल गया था। अवनि ने इधर उधर की जेबें तलाशी। जाने क्यों उसे लगा जैसे वो पर्स में नहीं बल्कि जामुनचाचा के भीतर झाँक रही है।

पर्स के एक कोने में उसे एक पीला पुराना कागज़ नज़र आया। उसने बेहद उत्सुक्ता से उसे बाहर निकाल कर खोला।

उस जीर्ण-शीर्ण कागज़ को बड़ी सावधानी से खोल कर सीधा करते ही वह अवाक रह गई। इतने सालों बाद भी उसने उस कागज़ को पहचान लिया। यह वही डायरी का पन्ना था ,जिसे सालों पहले जामुनचाचा ने कबाड़ी की रद्दी वाली डायरी से फाड़ा था।। उसकी गिचमिड़ लिखाई अब भी अवनि पढ़ पा रही थी।

“मैं ज़िदगी से पूछ रहा हूँ अजब सवाल

वो कौन था जो मेरे बदन से निकल गया”

फोन की आवाज से उसकी समाधी टूटी। उसने फोन उठा कर हॅलो कहा तो उसे अपनी ही आवाज अजनबी सी लगी।

क्या बात है? सब ठीक तो है ना” दूसरी तरफ अखिल था।

अवनि का मन किया कि कहे “ हाँ यार, अब साला सब ठीक है। जामुनचाचा आखिर चले ही गये।”

 

 

6 thoughts on “कोयला भया ना राख

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  1. कहानी कहने का ढंग अनुपम है। एक उत्सुकता बनी रहती है, अंत तक। और अंत होता है तो बस एक प्रश्न शेष रह जाता है।

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