स्कूल अच्छी तरह चालू था ,बस पप्पा कक्षा में कदम भी नहीं रखते थे।
सिर्फ खेलने के लिये ही स्कूल जाते।
हाँ ,स्कूल के कॅन्टीन में चाय पीने लेकिन रोज ईमानदारी से जाते।
उस जमाने में बच्चों की जेब में आमतौर पर पैसे नहीं ही हुआ करते थे । इसलिये शिक्षकों के अलावा शायद ये ही अकेले इतने छोटे विद्यार्थी थे जो कॅन्टीन में चाय पीते थे। कई बार तो शिक्षकों की चाय के पैसे भी यही दे दिया करते।
पप्पा को कभी भी किसी भी उम्र के व्यक्ति से बात करने में कठिनाई नहीं हुई, इसलिये उनमें से कई शिक्षकों से उनकी अच्छी मित्रता भी हो गई थी।
कुछ- कुछ शिक्षकों को यह बात बिल्कुल सहन नहीं होती थी। उनमें से एक कविश्वर मास्टर थे। वे कई बार पप्पा को टोकते। वे खुद भी कभी कॅन्टीन की चाय नहीं पीते थे। पप्पा को देखते ही उनका पारा चढ़ जाता।
पढ़ने के लिये तो सभी कहते रहते थे।
परीक्षा से पहले पढ़ लेंगे, इस बात पर पप्पा का पूरा विश्वास था।
लेकिन परीक्षा से पहले पप्पा का नाम डीफॉल्टर्स की लिस्ट में बोर्ड पर लग गया। बाकी सब शिक्षकों ने तो उनकी क्लास में की अनुपस्थिति को माफ कर दिया था, लेकिन कविश्वर मास्टर ने उन्हें परीक्षा में बैठने की अनुमति देने से इंकार कर दिया।
और एक साल बरबाद हो गया।
घर पर एक नया ही नाटक चालू हो गया था।
नाना उज्जैन गये थे।
वापस लौटे तो शादी करके।
घर के सब लोगों को बड़ा धक्का लगा।
पप्पा को इस बात का बहुत गुस्सा था, कि उन्होंने शादी करने से पहले पूछा भी नहीं। लेकिन १९४०-४२ के जमाने में कौन से बाप अपने बेटे से ऐसी बातें किया करते थे।
पप्पा ने नाना की नई पत्नी को अपनी माँ के जगह पर स्वीकार करने से साफ इनकार कर दिया। उन्हें आई कहना तो दूर, वे उनकी तरफ देखते भी नहीं थे।
बहनें तो बहुत छोटी थीं। नई माँ के साथ-साथ वो दोनों अपने पिता का भी संदेह की दृष्टि से देखने लगीं। उन्हें पिता से ज्यादा भाई पर भरोसा था। पप्पा की देखा देखी वे भी उन्हें आई नहीं कहतीं।
कुछ तो पुकारना ही पड़ता, इसलिये शालू आत्या ने उनका नाम ही ‘काहो’ (का हो का हिन्दी अनुवाद शायद ‘सुनिए’ हो सकता है) रख दिया।
पहले पहल उन्हें संबोधित करते समय काहो था, लेकिन बाद में “काहो ऐसा बोली”, “काहो ने वैसा किया” वगैरह कहना भी शुरू हो गया। धीरे-धीरे उनके लाख ऐतराज करने पर भी घर के और लोग भी उन्हें काहो कहने लगे।
काहो के आने से पहले काकी का घर पर एकछत्र राज्य था । वे भी उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं चाहती थी।
दूसरी तरफ काहो भी कोई सीधी-सादी नहीं थीं। पप्पा की आई के वे सब गहनें जो अब काकी के पास थे, काहो वे सब चाहती थीं। घर के बाकी सब व्यवहारों में भी वह हस्तक्षेप करतीं। उस पर यह तीनों बच्चे भी उनसे ठीक व्यवहार नहीं करते थे।
काकी काहो के विरुद्ध इनके कान भरती रहतीं।
घर में रोज सुबह-शाम हर बात पर जम कर झगड़े होने लगे। नाना भी तंग आ गये थे।
कई बार तो इतना झगड़ा होता, कि घर पर खाना ही नहीं बनता।
तब नाना इन तीनों को हॉस्पिटल बुलवाते। वहीं हॉस्पिटल के सामने एक हॉटल था। चारों वहीं खाना खा लेते।
पप्पा की तबीयत खराब रहने लगी। हर समय हल्का सा बुखार रहता। पेट दर्द भी हर समय रहता। काकी ने कहना शुरू किया, कि संपत्ति की लालच में काहो उन्हें धीमा जहर दे कर मारने की कोशिश कर रही है।
माँ की मृत्यु के बाद पप्पा की मौसी, जो विधवा थी और ग्वालियर में ही रहती थी,बच्चों पर ध्यान रखने लगी थी।
मावशी को भी काहो पर शक होने लगा। उन्हें लगा कि काहो पप्पा पर काला जादू करवा रही है।वरना हर समय खेलने कूदने वाला बच्चा एकदम बीमार कैसे रहने लगा।
१९४०-४५ के जमाने में इस तरह की बातें आम थीं।
वो एक दिन पप्पा को किसी झाड़-फूंक वाले मांत्रिक के पास ले गई। मांत्रिक भी बिलकुल पहुँचा हुआ चालाक और शातिर था।
बोला “अरे सारे टोटके तो मुझसे ही करवाए जा रहें हैं । मुझे क्या मालूम कि मैं ये सब तेरे खिलाफ कर रहा हूँ। अब तू बिल्कुल चिंता मत कर, मैं सब ठीक कर दूँगा।”
पप्पा बहुत डर गये। बीमार तो थे ही, और घर के झगड़ों से तंग भी थे।
एक दिन सीधे नाना से जा कर बोले कि अब मुझे इस घर में रहना संभव नहीं है। मैं घर छोड़ कर चला जाता हूँ।
नाना भी कमाल के आदमी थे ,उन्होंने कुछ देर सोचा फिर बोले,
“तू कुठे जाशील या वयात। त्या पेक्षा मीच जातो। तू इथेच रहा।” (तू कहाँ जाएगा इस उम्र में? बेहतर होगा कि मैं ही चला जाऊँ। तू यहीं रह) शायद उन्हें भी एहसास था कि अब घर में रहना नामुमकिन है।
बस इतनी ही बात हुई बाप बेटे में।
और फिर वे अपनी पत्नी को लेकर सचमुच हमेशा के लिये घर छोड़ कर चले गये।
उन्होंने दूसरा मकान खरीद लिया।
घर का खर्चा नाना ही चलाया करते थे, इसलिये उनके जाने से काकी बड़ी परेशानी में पड़ गई।
काका की आमदनी भी ठीक-ठाक रही होगी,लेकिन काकी के खुद के खर्चे बहुत ज्यादा थे। काकी गोरी चिट्टी हल्के ग्रे रंग की आँखों वाली महिला थीं, जिन्हें अपने आप पर काफी नाज़ था। उनका नाम कमला था। और वे खुद ही कहती थीं कि मैं तो नये कपड़े पहन कर एकदम कमल के फूल की तरह दिखती हूँ। उन्हें बहुत अच्छे कपड़ों का और बहुत अच्छे खाने का बेहद शौक था। वे खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती थीं ।
जब हम बहुत छोटे थे तब काकी भगवान की पूजा करते समय हमें भी भजन सिखाया करती थी। थोड़ा बड़े होने पर कभी मुझे अचानक ही एक दिन समझ में आया कि हमें काकी ने सिखाये हुए कई भजनों में उनका नाम आता है। हम भी खूब जोर जोर से काकी के साथ गाते
“कल्याण करी रामराया,
कमला, तुझे कल्याण करी रामराया”
(राम कमला का कल्याण करेंगे)
काकी को अंग्रेजी बोलने का भी बड़ा शौक था। वह सीलिंग फॅन को सिविल फॅन कहती तो हमें बड़ा मज़ा आता था। जब हमारे घर पहली बार काकी ने टीव्ही पर चित्रहार देखा, तो बेहद खुश हो गई। मुझसे पूछा कि कौन गा रही है।
मैने कहा “वैजयंती माला”
इस पर खुश हो कर काकी ने ‘वंसमोअर वैजयंती माला’ का नारा लगाया था। आमतौर पर काकी के सारे विषय खुद से शुरू हो कर खुद पर ही खत्म होते थे।
काकी का भाषा प्रयोग भी मुझे बड़ा मनोरंजक लगा करता था। कई शब्द तो बड़े खास थे। एक जुमला तो मुझे आज भी याद है और अब भी उतना ही पसंद है।
किसी घटना का बड़ा रसभरित वर्णन कर के कहतीं “ फिर तो भैया… दे धमैया”
भैया का ईई वो बड़ा लंबा खींचती। इस धमैया का मतलब अलग-अलग बातों में अलग-अलग होता। कभी, फिर खूब हंगामा हुआ, कभी, खूब मज़ा आया तो कभी खूब रोना पीटना मचा। हर बात के लिए वाक्यांश एक ही.. दे धमैया!
नाना के जाने के बाद घर का आर्थिक गणित बिगड़ने लगा।
बच्चे अपने पिता के घर रहने जाने को तैयार नहीं थे।
उस पर एक तो घर पप्पा के आजोबा का था और दूसरे काका को इन बच्चों से सचमुच बहुत प्रेम था, इसलिए उन्हें घर से भी निकाला नहीं जा सकता था। लेकिन काका की आर्थिक स्थिती भी कोई बहुत अच्छी नहीं थी। और घर में काका,काकी,उनकी बेटी विमल, आजी, पप्पा, शालू,मालू इन सात लोगों के अलावा दो ,तीन नौकर और कुछ ऐसे रिश्तेदार भी थे जो सालों से वहीं टिके हुए थे।
आखिर तंग आ कर काकी ने इन बच्चों को खाना खिलाने से इंकार कर दिया।
छोटी-छोटी शालू और मालू आत्या अपने घर से पैदल चल कर नाना के घर खाना खाने जातीं।
काहो अक्सर दरवाजा बंद कर लेती और कहती कि आई कहो तभी खोलूँगी।
शालू आत्या बेचारी बहुत छोटी थी, वह ‘आई दरवाजा खोलो’ कह देती। खाना खा कर फिर काहो कहने लगती।
पप्पा तो वहाँ रहना नहीं चाहते थे, लेकिन ये दोनों बेटियाँ भी कभी नाना के पास क्यों नहीं रहीं, ये मुझे कभी समझ में नहीं आया।
वे दोनों तो इतनी छोटी थीं, कि अब उन्हें भी याद नहीं आता, कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। शायद उन्हें भाई पर पिता से अधिक विश्वास था। या फिर काहो का बर्ताव उनसे ठीक नहीं था।
पप्पा अक्सर बाहर खाना खा लेते। यदि पैसे नहीं होते तो नहीं भी खाते।
पप्पा और नाना रोज बाड़े पर मिलते। बाड़ा ग्वालियर शहर के मुख्य बाजार का चौराहा है। वहीं एक चाय की दुकान में चाय पीते। इधर उधर की बातें करते और फिर अपने-अपने घर चले जाते। चाय का बिल हमेशा नाना ही देते।
कभी पप्पा नहीं मिलते, तो नाना अगले दिन पूछते “कल तू दिखा भी नहीं ,कहाँ था?”
और पप्पा कहते “आप भी तो परसों नहीं आए थे।”
गंगा सेवक के पिता कानपुर के शहर कोतवाल थे। वे अच्छे खासे पढ़ लिखे थे, लेकिन उनके पिता चाहते थे कि वे उनकी छत्रछाया से बाहर निकल कर अपनी किस्मत खुद बनाएँ।
इसलिये गंगासेवक ग्वालियर आ कर पुलिस कॉन्स्टेबल बन गये।
उनकी ड्युटी माधोगंज में थी। वे रोज खाली समय में नाना के क्लिनिक में आ कर गप्पें लगाने बैठते। नाना की और उनकी बहुत अच्छी दोस्ती थी। पप्पा पर उनका पुत्रवत प्रेम था। उनकी यह आत्मीयता नाना की मृत्यु के बाद भी बनी रही। वे पप्पा से उम्र में बहुत बड़े थे किंतु उनके बहुत अच्छे मित्र भी थे।
असंख्य बार जब पप्पा मुसीबत में पड़े और उनसे मदद माँगी ,उन्होंने हमेशा out of the way जा कर मदद की।
एक बार किसी गबन के केस के सिलसिले में वह एक मुजरिम की तलाश में थे।
एक दिन सुबह-सुबह अपना फौज फलाटा ले कर वे पप्पा के घर पहुँचे। पप्पा को जीप में बैठाया । उन्हें जिसकी तलाश थी उस व्यक्ति का कोई रिश्तेदार पप्पा का मित्र था।
उनके कहने पर पप्पा ने बातें बना कर उस मित्र को साथ लिया।
उसे साथ ले कर मुजरिम के घर पहुंचे।
उसने और पप्पा ने जा कर उसके घर का दरवाजा खटखटाया। इन्हें देख कर उनकी पत्नी ने दरवाजा खोला । वह व्यक्ति घर पर नहीं था ।
पप्पा ने उसकी पत्नी से मराठी में बात करके उसके बारे में पता लगाया । फिर पुलिस ने उसके घर छापा डाला । कुछ थोड़ा बहुत पैसा बरामद हुआ। बाकी उस बेचारी महिला को कुछ पता नहीं था।
पप्पा का वह मित्र जो उस व्यक्ति का रिश्तेदार था, वह और उसके अन्य रिश्तेदार पप्पा पर बेहद नाराज हो गये। उनका मानना था कि पप्पा ने धोखे से उसे अपने ही रिश्तेदार के खिलाफ इस्तेमाल किया था। वे पप्पा को धमकियाँ देने लगे।
तब पप्पा हालांकि बहुत छोटे थे,लेकिन बड़ी गंभीरता से बोले ” अब CID की नौकरी की है तो ड्यूटी तो करना ही पड़ता है ।
इस घटना के बाद बिना वजह लोग पप्पा को काफी महत्वपूर्ण समझने लगे।
नाना गंगासेवक पर काफी नाराज हुए। इस प्रकार के लफड़ों में पड़ने के लिऐ पप्पा अभी बहुत छोटे थे।
गंगासेवक बाद में SP बन गये थे। भिंड मुरैना में उनका काफी दबदबा था।
एक बार किसी ने खबर उड़ा दी, कि गंगासेवक ने डाकू मोहर सिंग और माधोसिंग को मारने का बीड़ा उठाया है। गंगासेवक परेशान!!
समझाने की कोशिश करें कि ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन उनके कहने पर कोई ध्यान ही न दे। बाद में जब श्री जयप्रकाश नारायण ने इन डाकुओं से आत्म समर्पण करवाया तब उसमें गंगासेवक की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।
मुझे बचपन की एक घटना याद है। गंगासेवक भोपाल हमारे घर आने वाले थे। आई हमें उनके सामने अच्छी तरह सजा-सँवार कर पेश करना चाहती थी। उनके आने में देर थी, इसलिये हम तीनों खेलने चले गये। जब वे आए तो आई ने किसी को बुलाने भेजा। हम लौटे तब आई ने खिड़की से हमें देखा।
हम तीनों धूल में सने ,मिट्टी में लोटे हुए थे। आई बेचारी की आँख से बस आँसू आना ही बाकी था। उन्होंने हमें वहीं खिड़की के पास बुलाया। पड़ोस से थॉमस आँटी को बुलाया गया। खिड़की से साफ कपड़े दिये गये। आँटी ने हमें धो पोंछ कर साफ किया और हम लोग एकदम अच्छे बच्चों की तरह सामने के दरवाजे से अंदर आए।
उनकी बड़ी बड़ी मूँछों से हम बहुत प्रभावित हुए थे ।
बाकी अगली बार…….
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