पप्पा को गाड़ियों का बड़ा शौक था।
स्कूटर और कार तो आमतौर पर सभी लेते हैं, लेकिन हमारे पप्पा ने तो रिक्शा से लेकर बस तक, सभी प्रकार की गाड़ियाँ जीवन में कभी ना कभी खरीदीं।
लायसेंस तो उनके पास स्कूटर से ले कर ट्रक तक हर प्रकार की गाड़ी चलाने का था।
उस जमाने में स्कूटर के लिये बहुत दिन पहले बुकिंग करनी पडती थी। पप्पा एक ना एक स्कूटर की बुकिंग हमेशा कर के रखते। जैसे ही किसी गाड़ी का नंबर आता, पुरानी वाली बेच कर नई ले लेते।
इस तरह वे हर साल एक नई स्कूटर चलाते।
कालाबाज़ार ना हो इसलिये एक आदमी कितने नंबर लगा सकता है, इसके भी कुछ नियम थे। उनसे बचने के लिये पप्पा अलग अलग शहरों में गाड़ियाँ बुक करते।
एक बार ग्वालियर में एक स्कूटर का नंबर आया।
आई को किसी शादी में ग्वालियर जाना था। आई ने योजना बनाई कि वे दोनों ग्वालियर जाएंगे। शादी में शामिल होंगे, स्कूटर ले कर ट्रेन के कार्गो में डालेंगे और उसी ट्रेन से वापस आ जाएंगे।
सिर्फ तीन दिन की बात थी।
घर पर हम तीनों बच्चे ही रहने को सिर्फ तैयार ही नहीं, बल्कि बेहद आतुर भी थे।
सबसे बड़ी मनीषा शायद दस साल की रही होगी।
कुछ अड़ोसियों पड़ोसियों ने भी हमारा खयाल रखने का वादा किया। लेकिन फिर भी आई ने हमारी बूआ की बेटी जयू ताई और उसके पति को हमारे साथ रहने के लिये बुला लिया।
ग्वालियर पहुँच कर पप्पा ने स्कूटर खरीदी।
शादी वगैरह कार्यक्रम समाप्त हुए।
वापस भोपाल लौटते समय अचानक पप्पा ने अपना इरादा बदल दिया।
वे स्कूटर से ही भोपाल आने का विचार करने लगे।
शायद इरादा उनका पहले से ही था, लेकिन बहस टालने के विचार से बोले नहीं थे।
भोपाल से ग्वालियर की दूरी बाय रोड करीब साडे चार सौ किलोमीटर के आसपास है। ये सफर पप्पा स्कूटर से अकेले ही करने का विचार रखते थे।
ज़ाहिर है सबने पूरा विरोध किया।
पर मान जाएं तो वो पप्पा ही क्या ?
फिर ऐसी हालत में आई भी कब पीछे हटने वाली थी, वो भी साथ आने की ज़िद पर अड़ गई।
आखिर सब रिश्तेदारों के ज़बरदस्त विरोध के बावजूद आई-पप्पा स्कूटर पर पीछे सूटकेस बांध कर ग्वालियर से भोपाल निकल पड़े।
रास्ता उनका हमेशा का फेवरेट आगरा बॉम्बे हायवे ही था।
शिवपुरी के पास रास्ते में एक तरफ गहरी खाई है और दूसरी ओर पहाड़।
वहीं सड़क पर यहाँ वहाँ बहुत से बंदर मस्ती कर रहे थे।
पप्पा को उन्हें देख कर सुबोध का खयाल आया। पीछे मुड़ कर वो आई से बोले कि सुबोध होता तो उसे बंदर देख कर कितना मज़ा आता।
उतनी देर के लिये उनका ध्यान रस्ते से हट गया।
फिर सामने देखा, तो अचानक बीच सड़क पर एक बड़ा सा पेड़ टूटा पड़ा हुआ नजर आया।
शायद कुछ लुटेरों ने चोरी के इरादे से, बीच रास्ते में पेड़ काट कर डाल दिया था।
उसी पेड़ के तने पर कुछ लोग आराम से बैठे थे।
हायवे था और स्कूटर की रफ्तार भी बहुत तेज़ थी। एक तरफ खाई थी जिसमें गिरने का पप्पा को पुराना अनुभव था।
पेड़ से टकराने से पहले स्कूटर का रुकना नामुमकिन दिखाई दे रहा था। उन्होने एक पल में निर्णय लिया और ब्रेक लगाते हुए हॅन्डल पहाड़ की ओर घुमा दिया।
सड़क के किनारे बरसात का पानी बहने के लिये नाली बनी हुई थी। स्कूटर का पिछला पहिया उसमें फँस गया और आई पप्पा सहित स्कूटर नीचे गिरी।
आई का पैर स्कूटर के नीचे फँस गया।
उसी समय अचानक पीछे से तीन मोटरसायकल सवार दूधवाले वहाँ आ पहुँचे।
उन्हें देखते ही पेड़ के पास बैठे लोग भाग गये।
दूधवालों ने स्कूटर उठाई।
आई कुछ पल के लिये बेहोश हो गई थी। उन लोगों ने आई पप्पा की उठने में मदद की। पानी-वानी पिलाया।
आई का पैर स्कूटर के नीचे दबने से काफी चोट लगी थी। पप्पा के एक हाथ का अंगूठा कट कर लटक सा गया था।
थोड़ा सम्हलने के बाद पप्पा ने उन लोगों की मदद से स्कूटर पहाड़ से नीचे उतारी।
हॅन्डल टेढ़ा हो गया था उसे दबा कर सीधा किया।
स्टार्ट कर के देखी तो चालू थी।
उन लोगों की मदद से आई पप्पा शिवपुरी के किसी अस्पताल में पहुँचे।
आई का पैर काफी कट गया था। खून बह रहा था। कुछ टांके लगाना आवश्यक था।
छोटे से गाँव की छोटी सी डिस्पेंसरी थी। वहाँ का डॉक्टर भला इंसान था। उसके पास थोड़ा बहुत फर्स्टएड का सामान था। उसने काफी अफसोस जताते हुए बिना एनस्थीजिया के ही टाँके लगा दिये। पप्पा के हाथ में भी दो टांके लगे।
उस भले डॉक्टर ने इन्हें कॉफी पिलाई, और काफी समझाने की कोशिश की, कि अभी भी वापस ग्वालियर चले जाओ या यहीं शिवपुरी में रुक जाओ।
पप्पा ने वापस जाने से साफ मना कर दिया।
उनके ससुराल वाले तो पहले ही बहुत खिलाफ थे इस सफर के, इस अपघात के बाद तो ना जाने क्या क्या सुनना पड़ता।
पप्पा ने अपने हमेशा के अंदाज में घोषित किया कि ऐसा भी कुछ खास नहीं हआ है।
दोनों उसी अवस्था में स्कूटर पर बैठ कर फिर चल दिये।
फिर जब हायवे पर पहुंचे तो रास्ता बिल्कुल खाली था।
कुछ देर तो स्कूटर बढिया चल रही थी। पप्पा ने उसकी तारीफों के पुल बाँध दिए।
फिर अचानक जब बंद पड़ी, तब उन्हें याद आया कि इस अपघात की सारी गड़बड़ में वे गाड़ी में पेट्रोल भरना भूल गये थे।
आई को सूजे हुए पैर के साथ स्कूटर के पास अकेले खड़ा कर, पप्पा पेट्रोल की तलाश में निकले।
दूर दूर तक कोई इंसान नामक प्राणी नहीं था।
फिर कुछ देर बाद एक आदमी मिला, जिसके पास पेट्रोल तो नहीं था, लेकिन उसने बताया कि कुछ आगे सड़क का काम चल रहा है, जहाँ रोड रोलर वगैरह हैं।
वहाँ शायद पेट्रोल मिल जाए।
वहाँ पहुँचने पर पहले तो वहाँ काम कर रहे लोगों ने साफ इंकार कर दिया।
लेकिन फिर पप्पा के अपघात की कथा सुन कर उन्होने एक बोतल में इतना पेट्रोल दिया, जितना अगले पेट्रोल पंप तक पहुँचने को काफी था।
आई के पैर की सूजन बहुत बढ़ गई थी। आखिर उन्होने तय किया कि रात ब्यावरा में गुज़ारी जाए। ब्यावरा में हमारी छोटी बुआ शालू आत्या रहती थी।
भोपाल में हम उनके आने का इंतज़ार कर रहे थे। जब निर्धारित समय पर वे वापस भोपाल नहीं पहुँचे तो सबको चिंता होने लगी।
रात को जब पप्पा का फोन आया, तब उन्होने अपघात के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया था। लेकिन हम लोग बहुत डर गये थे।
जाने क्या-क्या सोच डाला हमने रात भर में।
अगले दिन शाम को अपनी बजाज सुपर पर आई पप्पा भोपाल पहुँचे तो उनके हालात जानने के लिये सारा मुहल्ला इकट्ठा हो गया।
आई का पैर सूज कर गुब्बारे की तरह फूल गया था। हमारी आई जिसका कभी हमने सर दुखते भी नहीं देखा, उसके बाद कई साल पैर दर्द से परेशान रही।
बाकी अगली बार....
Like this:
Like Loading...
Hiii
Kya daringwale papa the tumhare.
Dusra koi hota to pahale accident ke bad itna dar jata ki wapas aisa daring kabhi nahi karta.
LikeLike