मेनोपॉज़

बात बेबात हो जाती हैं
आँखे यूँ ही नम
ना जाने इन दिनों क्यों
ज़ब्त बहुत है कम।

हम सबके और सब
हमारे दुश्मन बन जाते हैं।
गुस्सा इतना आता है
हम खुद से डर जाते हैं
उम्मीदों के पहाड़ को अब
तो मुश्किल हो गया ढोना
पहले सब कर लेते थे
पर अब आ जाता है रोना
क्या समझाएँ खुद को
खुद से थक जाते हैं हम
ना जाने क्यों इन दिनों
ज़ब्त बहुत है कम

कितना चाहे कम बोलें
पर रोक नहीं पाते हैं।
कभी कभी तो अनचाहे ही
कुछ भी कह जाते हैं।
देख के बच्चों के चेहरे फिर
इतना होता है गम।
ना जाने क्यों इन दिनों
ज़ब्त बहुत है कम

किससे दुखडा कहें यहाँ
पर सुखिया कोई नहीं है
सभी सहेलियाँ बीच धार हैं
सबका हाल यही है
कभी कभी तो बिना वजह
दिल डूबा सा रहता है
थक जाते हैं और बदन
भी टूटा सा रहता है
कुछ भी कर लें दर्द
कमर का होता नहीं है कम
ना जाने क्यों इन दिनों
ज़ब्त बहुत है कम

एक वो ही बेचारा है जो
सब कुछ सुन लेता है।
दुखते पैर दबा देता है
कमर में मूव मल देता है
उसकी इस अच्छाई से भी
फिर दिल भर आता है।
और इसी बहाने
फिर से रो लेते हैं हम
ना जाने इन दिनों क्यों
ज़ब्त बहुत है कम।

5 thoughts on “मेनोपॉज़

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