पतंगे उड़ाना, पेंच लड़ाना
कटी पतंग लूटने के मज़े लूटना
हमेशा से रहा है हमारे खून में।
जब कुछ और नहीं था
तब से अब तक,
हमारे दादा-परदादा
और उनके दादा-परदादा
और शायद उनके भी ,
हर उम्र में प्रेम करते रहे
पतंगों से और चकरियों से ।
बेटे की पांचवी सालगिरह पर
उसके दोस्तों को तोहफे में
दी थी रंगीन कागजी पतंगे मैंने।
अब भी याद है उनके
रोमांचित चेहरे।
पतंग जो प्रतीक थी उड़ान का,
ऊंचाई और आकाश का,
वह अचानक कातिल कैसे हो गई ?
क्या करते थे पिछले जमाने में परिंदे?
उड़ा तब भी करती थी पतंगे
आसमानों में।
सूते जाते थे मांजे तब भी
लड़ाए जाते थे पेंच।
तब भी गिरा करते थे कुछ
छतों से पेंच लड़ाते जोशीले।
और सर तब भी फूटा करते थे
बेसुध कटी पतंगों के पीछे भागते।
दोष पतंग का है, या मांजे का
जो कि परदेसी है और
शायद पतंग के साथ साथ
जेब,हाथ और गर्दनें भी काटता है
या दोष उन हाथों का और दिमागों का है
कि उन्हें अब भी पतंग उड़ाने में
खुद उड़ने सा रोमांच मिलता है ।
या दोष है दिन दूनी रात चौगुनी
बढ़ती पतंगों का
और तेजी से सिमटते आकाश का
जहाँ न पतंगों के लिए जगह बाकी है
न परिंदों के लिए।
कभी कभी सोचती हूं कि
क्या रोकना
चाहिए और क्या रोक रहे हैं?
आखिर किस-किस बात पर पाबंदी लगाएंगे?
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bahot badhiya…
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