रे मन,कितने मिडिल क्लास हो तुम!
क्या कभी खुले दिल से
बेधड़क, बेहिचक खुल कर,
कोई भावना खर्च कर पाए हो तुम?
प्यार हो,नफरत हो या चाहे क्रोध हो,
हर बार पड़ जाते हो
जमा-खर्च के चक्कर में।
किसे बुरा लगेगा,किसे अच्छा,
कौन रिश्ता बनेगा,क्या टूटेगा
और किस में पड़ेंगी दरारें..
यहां तक कि तुमसे तो तारीफ
भी नहीं होती किसी की मुँह भर के,
मानो कुछ ना बचेगा जो
कुछ अधिक शब्द खर्च हो जाएँ।
क्यों नहीं किसी रईस की तरह
जब मन में आए तब खोलते
अपने एहसासों की अंटी
कि इतने बाकी हैं तुम्हारे पास
जो सात जन्मों भी खत्म ना होंगे।
या किसी गरीब की तरह
उलट देते हो अपनी फटी जेबें
कि उसमें छिपाने जैसा कुछ है ही नहीं।
लेकिन तुम तो अगली पिछली
उसकी,इसकी,सबकी चिंता में पड़ जाते हो।
इतना,कि अब तुम में बाकी ही नहीं रही
वो उत्स्फूर्त सहजता,
जो होती है बेहद अमीरों में
या फटेहाल गरीबों में।
रे मन,कितने मिडिल क्लास हो तुम!!
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Awesome post! First few lines are simply superb..
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