मेरी खिड़की से बाहर
जहाँ तक नजर जाती है
दिखती हैं बस इमारतें
खिड़कियाँ, और दरवाजे
पानी की टंकियाँ और एंटिने
इस तरह स्पर्धा करते से,
लगता हैं मानों किसी
भीड़ भरे प्लेटफार्म पर
गाड़ी पकड़ने एक दूसरे से
धक्कामुक्की करते लोग हों।
जब भी बाहर देखती हूँ तो
थोड़ा सा सिकुड़ा सा आसमान देख
अफसोस की एक साँस ले कर
सोचती हूँ कि कैसे चहक लेते हैं
ये तोते तारों पर बैठ कर।
कल अचानक नींद टूटी रात को
और उसी खिड़की से बाहर गई नजर
तो देखा, कि तारों से भरा
सारा आसमान
उतर आया था नीचे।
और अंधेरे से डर कर दुबक गई थीं
कहीं वो सारी गगनचुंबी इमारतें
और बिस्तर पर पड़े पड़े
उस शीतल, सुंदर दृश्य को
आंखों में समेटती
सुबह तक जागती सोचती रही मैं
कि इतना बड़ा आसमान अपने
सारे सितारों का खजाना लिए
सदा से खड़ा था मेरी खिड़की पर
इतनी उलझी रही मैं
जमीन के रिश्तों में,
कि मैंने देखा ही नहीं।
स्वाती
20/03/20
Like this:
Like Loading...
Excellent
LikeLike