रोज की मानिंद आसमान में निकला सूरज। रोज की तरह चहकते पंछी चुगने को चले। रोज की तरह चलती रही इठला के हवा। और तो और बरसने लगी बेमौसम बारिश। कुछ नहीं.. कुछ भी तो पल भर ना थमा... और वो नस्ल कि जिसे पीसना पड़ता है सदा,खाने के पहले गेहूं का एक दाना भी समझती रही कि उसने रोक दिया दुनियां को। वक़्त के पास तो खैर रुकने के लिए वक़्त ही ना था लेकिन इतनी जोरों से हँसा उसकी नादानियों पे एक फूल जो खिला था कल शाम ही चमेली पर के उछल के टप से सीधा जमीन पर आ के गिरा। स्वाती 27 मार्च 2020
वा
क्या बात है
बहोत खूब
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