कम बोलो, उसने कहा।
ये भी क्या कि बेवजह
इतने शब्द खर्च किए जाओ
जैसे मुफ्त का माल हों।
किसी दिन मौन भी रहो
कुछ भी,बिल्कुल कुछ भी ना कहो।
आखिर साढे तीन सौ शब्दों का
एक दिन भर का कोटा तय हुआ।
फिर हूँ या हाँ को एक शब्द माना जाए ,
या नहीं, इस पर बहस करने में उन्होंने
साढे तेरा सौ लफ्ज़ गवाँए।
बोलने की तरह लिखना भी कहना है
इस पर दोनों थे एक राय।
रात को जब उसे फोन लगाया,
तो बड़ी चालाकी से हॅलो ना कहते
उसने बस इतना पूछा, ठीक??
दूसरी तरफ से कोई आवाज नहीं..
वो हमेशा से शाहखर्च
कुछ भी बाकी नहीं..
ये हमेशा से कंजूस,
कम से कम में काम चलाए।
पर उसके बचे-खुचे एकसौ तीन
अल्फ़ाज़ भी कितना बोझ उठाते...
फिर वक़्त के उस किनारे तक
दोनों मौन...
कानों पर लगाए फोन
सुनते रहे एक दूसरे की खामोशी ....
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वा
बहोत खूब
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Wonderful!
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वाह 👌😊
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वाह्ह्हह्ह्ह्ह 👌👌
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