
देवभूमी में बिन्सर के जंगल के
किसी छोर पर, चलते चलते
ज़ीरो पॉइंट की ओर ,
कुछ पल सचमुच
मानो शून्य में ही थे।
ना आगे कोई ,न पीछे ही।
ज़माना नहीं
एहसास ए ज़माना भी नहीं।
मैने कल्पना की
कि अगले मोड़ पर मुड़ कर
मैं भी निकल गई हूं दूर कहीं।
मैने खुद देखा खुद को
मुड़ कर ओझल होते।
सिर्फ देवदार के पत्तों की सरसराहट
चिड़ियों की चहचहाहट,
सूखे पत्तों का हवा से
यूं झड़ना, ज्यों किसी अदृश्य संगीत
की धुन पर लहराते बल खाते
धरती से मिलने जा रहे हों।
बुरांश की टहनियों का डोलना
मानों बहला रहीं हो गोद में ले
रक्तिम फूलों को झड़ने से पहले।
मैं नहीं , मेरा वजूद नहीं
एहसास ए वजूद भी नहीं।
पथ पर बिछे पत्तों पर
कोई पदचिन्ह नहीं।
ज्यों अक्ल का बोझ हटा
आंसू आज़ाद झरने लगे।
मैने सांस रोक ली,
या शायद लेना भूल गईl
हवाओं पर कबीर के
स्वर लहराने लगे
शून्य शिखर पर मन रहे
मस्तक पाए नूर….
स्वाती
28/03/21
बिन्सर
वा
सुरेख
अंतर्मुख करणारी कविता
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बहुत अच्छा लगा. दृश्य सामने आया
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बढिया
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Superb… as usual !
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खूप सुरेख कविता
दृश्य जिवंत करणारी, बोलकी
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