अक्सर देखा है मैंने
सामने किसी बिजली के
तार पर,या खिड़की की
मुंडेर पर बैठे कबूतर को
अपलक तकती बिल्ली को।
उस समय किसी महान योगी सी
वो इतनी एकाग्रता से
कबूतर समाधि में लीन होती है
कि सारे संसार में सिर्फ
वो और कबूतर बस,
इतना ही बाकी रह जाता है।
ये भी देखा है मैंने कि
उसकी इस तपस्या का
कुछ ऐसा असर होता है
कि कभी कभी कबूतर
सम्मोहित सा खुद ही
उसके पास खिंचा चला आता है।
वो रहती है तैयार,तत्पर
इस क्षण के लिए।
जो भी है...
बस यही इक पल है।
बिना किसी हिचकिचाहट
पलक झपकने से पहले
लपक लेती है उसे।
अचूक निशाना,
कातिल पकड़।
दूसरे मौके की रईसी
ना शिकारी के पास है
न शिकार के पास।
स्वाती
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