कुछ लम्हें गै़रज़रुरी से, जाने क्यों हो के बेक़रार यादों की एक पीली सी संदूक से हो गए फरार। कुछ गै़रज़रुरी से लम्हें फिर एक सलीके से चलते जीवन में सेंध लगाने लगे... सोची समझी सी राहों में पैरो के नीचे आने लगे। कुछ गैर ज़रूरी सी बातें, फिर फिर से याद दिलाने लगे। पहले ही गैर ज़रूरी थे,जाने संभाल क्यों रख्खा था, कुछ लम्हें गैर ज़रूरी से फिर से हमको ललचाने लगे। उनके बहकावे में आ कर अब फिर से कलम उठा ली है। वही डायरी नगमों की कल फिर से खोज निकाली है। सूखे रंगों की डिबिया भी अब मेज़ पे चढ़ कर बैठी है। वो बातें जो बहुत ज़रूरी थीं, थक कर कोने में लेटी हैं। कुछ गैर ज़रूरी लम्हें ही अब मेरी ज़रूरत लगते हैं। उनकी सोहबत में सब लम्हें अब खूबसूरत लगते हैं। हैरत है ज़िंदा रहते थे इतने दिन कैसे इनके बिन। कितनी मुद्दत के बाद मिले है फुर्सत के ये रात दिन। स्वाती
वा वा
बहोत खूब
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धन्यवाद!
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बहुत ख़ूबसूरती से आपने शब्दों को पिरोया है,बहुत ख़ूब
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धन्यवाद!
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बहोत अच्छे ..😊👌
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धन्यवाद
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बढ़िया!
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