पप्पा के बचपन में ग्वालियर का वातावरण बिल्कुल अलग था।
रोज सुबह सड़कें झाड़ी जाती और भिश्ती मशक लेकर रास्तों पर पानी छिड़कता। दरबार लगते और विशेष अवसरों पर महाराज की सवारी निकलती।
शिंदे सरकार का राज्य होने की वजह से स्कूलों में मराठी मीडियम था। पप्पा के यार दोस्त भी सरदारों-सुबेदारों के बेटे थे। जो अपने आप को किसी राजा से कम नहीं समझते थे। पढ़ने लिखने से उनका कोई संबंध नहीं था । वे समय बिताने के लिये स्कूल जाया करते थे। जब फेल हो जाते, तो बड़े ठाट से कहते कि हम कोई कोली चमार के लड़के हैं क्या, जो हर साल पास होते रहेंगे। जब हमारा मन करेगा हम तो तभी अगली क्लास में जाएंगे।
उनके साथ रह-रह कर पप्पा की भी पढ़ाई लिखाई में कोई विशेष आस्था तो नहीं रह गई थी, लेकिन उनकी बस इतनी इच्छा जरूर रहती थी, कि एक ही क्लास में दो साल ना रहना पड़े। किसी ना किसी तरह अगली क्लास में पहुँच जाया करते थे। जब तक आजोबा जीवित थे, वे ना पढ़ने पर थोड़ी पिटाई कर देते थे। उनके बाद तो किसी का कोई ध्यान ही ना रहा।
एक बार चौथी कक्षा में पढ़ते थे,तब दोस्तों के साथ मटरगश्ती में इतने मशगूल हो गये, कि लगभग चार महीने रोज घर से बस्ता ले कर निकलते, लेकिन एक दिन भी स्कूल तक नहीं पहुँचे।
परीक्षा से कुछ दिन पहले जब स्कूल गये, तो पता चला कि उनका नाम ही स्कूल से कट गया है। जब उन्होंने शिक्षक की बहुत जान खाई, तो उन्होंने वापस स्कूल में ले लिया गया, लेकिन २ रुपये जुर्माना भी किया गया। पप्पा ने जा कर नाना से पैसे माँगे। जब उन्होंने पूछा किस बात के पैसे, तो इन्होंने बेहिचक कहा “ये स्कूल वाले भी जाने क्या-क्या नई-नई फीस लगाते रहते हैं। नाना ने आगे कुछ पूछताछ नहीं की।
पप्पा के मामा को टीबी हो गया था। उनकी हालत बिगड़ने लगी तब पप्पा की आई ने उन्हें इलाज के लिये छतरपुर से अपने यहाँ ग्वालियर बुलवा लिया। नाना बहुत नाराज हुए, लेकिन वे मामा कुछ दिन वहीं रहे। लेकिन ठीक नहीं हो पाए । बाद में उनकी मृत्यु हो गई।
उसके बाद पप्पा की आई को भी हमेशा बुखार रहने लगा।
उसी अवस्था में उन्होंने पप्पा की जनेऊ की जिद पकड़ ली।
उनकी आखें हल्की भूरी, बाल बेहद लंबे घुटने तक थे और वे बहुत नाजुक सी थीं, पप्पा को उनके बारे में सिर्फ इतना ही याद है। उनकी तबीयत बिगड़ती गई। जो भी इलाज संभव था, वह सब किया गया, किंतु उस समय टीबी का कोई इलाज उपलब्ध नहीं था।
एक दिन पप्पा जब स्कूल से लौटे तो किसी ने उन्हें माँ के सामने ला कर खड़ा कर दिया। वे अपनी अंतिम घड़ियाँ गिन रहीं थीं। उन्होंने जब पप्पा को देखा तो कहा कि “आनंद करेल” (आनंद करेगा)। शायद यही उनके अंतिम शब्द थे।
मुझे इस वाक्य का व्याकरण कभी समझ में नहीं आता। आनंद से रहेगा या ऐसा ही कुछ होना चाहिये, ऐसा मुझे हमेशा लगता है। लेकिन पप्पा इस बात पर हमेशा डटे रहते हैं कि बस उन्होनें तो यही कहा था कि “आनंद करेल”। और यही वे जीवन भर करते भी रहे हैं।
अभी कुछ साल पहले शाम को बगीचे में घूमते समय पप्पा की मुलाकात एक सज्जन से हुई । उनके पुरखे अहिल्या बाई होलकर के दरबार में राज पुरोहित थे। बातों-बातों में उन्होंने पप्पा को बताया कि उन्हें विरासत में जागीरें और ना जाने क्या -क्या मिला है। तब पप्पा ने उन्हें बताया, कि अंतिम समय में उनकी माँ के अंतिम शब्द थे ‘आनंद करेल’ और पिता के आखिरी शब्द थे कि “मला तुझी काहीच काळजी नाहीं”, (मुझे तुम्हारी कोई चिंता नहीं) और बस यही उनकी विरासत है । और उनके पास अपने माता पिता का दिया कुछ भी नहीं।
यह सुन कर वे सजज्न बोले, कि तुम तो बहुत ही भाग्यवान हो ।तुम्हारे साथ तो तुम्हारी माँ का आशीर्वाद और पिता का विश्वास रहा।
मरती हुई माँ दीर्घायु या संपत्ति का आशीर्वाद ना दे कर आनंदित रहने का आशीर्वाद देती है, और मरते हुए पिता को तुम पर इतना विश्वास है कि तुम अपना खयाल खुद रख लोगे, और वह निश्चिंत हो कर प्राण छोड़ते हैं ।
और तुम्हें क्या चाहिये। मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला।
बाकी अगली बार…
Waa
swati
aaj donhi chapters wachayla wel milala
chan jamun aale aahet
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