माँ के जाने के बाद घर का वातावरण अजीब सा हो गया था।
हालांकि घर में आजी और काकी थीं, लेकिन आजी बूढ़ी थी। पप्पा की आई और आजोबा की मृत्यु के बाद उनका मन उचट गया था। पूजा पाठ में ही लगी रहती। काकी अपने आप में ही व्यस्त रहती थी। खाना बहुत बढ़िया बनाती, लेकिन उनका काम वहीं खत्म हो जाता।
नाना यानि पप्पा के पिताजी की एक अजीब सी, लेकिन बड़ी मज़ेदार आदत थी। रोज सुबह पप्पा, उनकी दोनों बहनें, और लाठी टेकते हुए उनकी आजी, नाना के हॉस्पिटिल में पहुँच जाते।
नाना की कोट की लम्बी-लम्बी जेबें थीं। जिसमें पैसे भरे रहते। रोज पप्पा को और आजी को आठ आने, और शालू और मालू आत्या को चार-चार आने मिलते। ये पैसे जो जाता उसी को मिलते। जो नहीं जाता उसकी छुट्टी । ये लोग कहते कि आप दवाखाने तक क्यों बुलाते हो? घर पर ही पैसे क्यों नहीं दे देते। इस पर उनका कहना था कि इसी बहाने तुम लोग मेरे पास तो आते हो । जो आएगा उसे ही पैसे मिलेंगे।
पैसे मिलने पर ये सब लोग बाहर ही दुकान से ले कर कुछ खा लेते। थोड़े पैसे बचा लिये तो दो तीन दिन में एक रुपया हो जाता, जिससे पप्पा सिनेमा देख लेते।
पप्पा के ममेरे भाई भास्कर काका ,जो पप्पा के बहुत घनिष्ठ मित्र भी थे, वे अपने पिता की मृत्यु के बाद घरवालों से नाराज हो कर, अकेले ही 8-9 साल की उम्र में छतरपूर से ग्वालियर भाग आए थे। तब उनके पास बदन पर पहने कपड़ों के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। ग्वालियर पहुँचने पर पप्पा की आई ने सबसे पहले उन्हें दर्जी के पास ले जाकर उनके लिये कपड़े सिलवाए थे।
मुझे इस बात का अक्सर आश्चर्य होता है कि पहले के जमाने में बिना आगापीछा सोचे लोग इतने मजे में घर कैसे छोड़ दिया करते थे। कहाँ रहेंगे ,क्या खाएंगे आदि का विचार भी घर छोड़ते समय मन में नहीं आता था। और फिर कोई ना कोई रास्ता निकल भी आता था।
भास्कर काका अक्सर बताया करते थे कि वे जब ग्वालियर में थे, तब जब अधिक पैसों की जरूरत होती, तो वे पप्पा के साथ नाना के अस्पताल जाते। बाहर खड़े हो कर सही वक्त का इंतज़ार करते, जब नाना किसी पेशंट को देख रहे होते, तब उन्हें बच्चों का उन्हें disturb करना अच्छा नहीं लगता । ठीक उसी वक्त ये दोनों जा कर उनके सामने खड़े हो जाते, कि नाना थोड़े पैसों की ज़रूरत थी। तब नाना ‘क्यों’ ये सवाल नहीं पूछते। बस चिढ़ कर अपनी लम्बी जेब में हाथ डालते और जितने पैसे हाथ लगते उतने दे कर भगा देते।
नाना भी काफी जिद्दी और अजब आदमी थे।
उनका अस्पताल माधव गंज में था । वहीं उनका एक मेडिकल स्टोर भी था । माधो गंज में बड़ा कपड़ा बाज़ार था। कहीं भी किसी के कोई झगड़े होते ,तो निपटारा करने के लिये सरपंच की तरह नाना को बुलाया जाता।
जहाँ नाना का अस्पताल था। वह सन्नुलाला नाम के एक बनिये की जगह थी ,जो उन्होंने किराये से ली थी।
उनके अस्पताल का नाम नॅशनल मेडिकल हॉल था। शुरू शुरू में नाना सन्नुलाल को किराया देते थे, लेकिन बाद में वह कहने लगा “रहने दीजिए”।
फिर कई सालों तक नाना ने उसे किराया नहीं दिया। उसका घर भी वहीं पास ही था। उसका बहुत बड़ा 20-25 लोगों का परिवार था । आये दिन उनके यहां कोई ना कोई बीमार रहता। सबका इलाज नाना ही करते।
वे वैसे तो पैसे के मामले में बिल्कुल हिसाबी नहीं थे ,लेकिन जब भी सन्नु लाला के घर का कोई मरीज देखते, तो एक रजिस्टर में मरीज का नाम ,बीमारी, दिन ,समय और कितनी फीस हुई, ये बिल्कुल ईमानदारी से, बिना भूले लिख लेते। हालांकि ना कभी इन्होंने फीस मांगी ना कभी उन्होंने दी । लेकिन माधव गंज के व्यापारी बनियों के बीच रह कर वे उनकी मनोवृत्ति अच्छी तरह समझने लगे थे।
करीब दस-पंद्रह साल के बाद एक दिन अचानक बनिये ने अपना बही खाता निकाला। अब तक के बकाया सारे किराये का हिसाब किया और करीब १२,०००/- रुपये का हिसाब लेकर नाना के पास पहुँच गया। फिर नाना ने भी अपना रजिस्टर निकाला और हिसाब किया । उनका हिसाब सन्नु लाला से कुछ ज्यादा ही निकला। उन्होंने अपने हिसाब के कागज उसे थमाते हुए कहा कि तुम खुद ही देख लेना, और यदि मेरा कुछ बाकी रहता हो तो बता देना, मैं दे दूंगा। तुम्हारा कुछ बाकी हो तो तुम दे देना ।
वह कागज ले कर चला गया। उसने घर जा कर सारा कच्चा चिट्ठा पढ़ा । हर मरीज़ का पूरा ब्योरा था। सब कुछ जांच कर देखा। फिर वापस आ कर उसने सूचित किया कि किसी का किसी पर कुछ लेना देना नहीं निकलता । फिर नाना ने अगले महीने से किराया देना शुरू कर दिया।
नाना वक्त के बेहद पाबंद थे। उस जमाने में ग्वालियर में रोज दोपहर को ठीक बारह बजे एक तोप चलाई जाती। तोप का आवाज होता और उनके पैर घर की दहलीज पर होते। सुबह वे बेहद जल्दी निकल जाया करते थे। स्नान पूजा आदि दोपहर को घर आ कर करते। खाना काकी बना कर रख देती, लेकिन बाकी कुछ वह अपनी जिम्मेदारी नहीं मानती थी ।
पप्पा की आजी दिन भर अड़ोस- पड़ोस में किसी के यहां घूमती रहती। अक्सर तो घर के सामने ही एक बड़ा मंदिर था, वहीं बैठी रहती। नाना पहले उन्हें ढूंढ कर खाना खाने बुलाते। यदि नहीं आती तो उनके लिये थाली परोस कर वहीं दे आते। उसके बाद जा कर पप्पा को ढूंढ कर बुला लाते और उनके साथ खाना खाते।
दोपहर को ठीक साढ़े तीन बजे वो फिर घर आते । खुद ही चाय बनाते और शालू आत्या और मालू आत्या को पिलाते।
घर के पास ही वाकणकर परिवार का वाड़ा था।( बड़ा सा दो-तीन मंजिला मकान, जिसमें बीच में आँगन, कूँआ वगैरह होता है और उसके चारों ओर कमरे होते हैं)
दरअसल वह घर पहले पप्पा के आजोबा का ही था, लेकिन जब पप्पा से पहले नाना के किसी बच्चे की मृत्यु के बाद वो मकान वाकणकर परिवार को बेच दिया गया था।
उस घर के नीचे ही दो दुकानें भी बनाई गईं थीं, जहाँ काका का पेट्रोमेक्स और स्टोव का व्यवसाय था। वे दुकानें, घर बिकने के बाद भी काका के पास ही रहीं । वाकणकरों से किराये की कभी कोई बात नहीं हुई। काका उनके घर के बिजली वगैरह के बिल खुद ही भर देते थे और इधर उधर के खर्चों के लिये पैसे दे दिया करते थे।
वसंता वाकणकर पप्पा के बड़े जिगरी दोस्त थे। दोनों परिवारों की भी आपस में बड़ी घनिष्ठता थी।
उनके पिता रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। उनकी बदली होती रहती। बच्चे माँ के साथ ग्वालियर में ही रहते। छुट्टियों में जब वाकणकर परिवार उनके पिता के गाँव जाता, तो अक्सर पप्पा भी उनके साथ जाया करते। दोनो ही घरों में किसी को कोई एतराज नहीं था।
पप्पा तब पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे । रोज सुबह ईमानदारी से बस्ता लेकर स्कूल को निकलते और अपने यार दोस्तों के साथ यहां वहां घूमते रहते।
वसंता वाकणकर का बड़ा भाई गोपाल गणित में बहुत होशियार था। परीक्षाओं के दिनों में वह घर के बाहर चबूतरे पर बैठ जाता। उसका हुक्म था कि हर कोई गणित के पेपर पर हर प्रश्न के सामने अपना उत्तर भी लिख कर लाए। आते ही वह पेपर ले कर बैठ जाता । क्या, कैसे लिखा है जाँचता और फिर कितने नम्बर मिलेंगे यह घोषित करता।
पप्पा को पेपर लिखने की हमेशा जल्दी रहती । गणित का तीन घंटे का पेपर जब आधे घंटे में लिख कर जब वापस लौटे तो उसने पकड़ लिया। जांच कर बताया कि सिर्फ पहले दो सवाल ही सही हैं, बाकी सब गलत।
रिजल्ट आया तो गोपाल की भविष्यवाणीनुसार पप्पा गणित में फेल हो गये थे। नाना ने जब रिजल्ट पूछा तो बता दिया कि छटवी में जाने वाला हूँ। वो भी इतने से संतुष्ट हो गये। लेकिन इतने बचपन से ही पप्पा बड़े रिसोर्सफुल थे।
राष्ट्रीय स्वयँसेवक सँघ की शाखा में जाया करते थे। वहां एक सज्जन आते थे। वे एक नए खुले स्कूल के मुख्य अध्यापक थे। पप्पा ने सीधे जा कर उनसे ही बात की। कहा कि मुझे यदि छटवी कक्षा में प्रवेश दे देंगे, तो मैं छ: माही परीक्षा के समय पाँचवीं की गणित की परीक्षा भी पास कर लूँगा। वे भी मान गये।
पर उन्होंने शर्त ये रखी कि स्कूल में प्रवेश लेने के लिये, पप्पा अपने गार्डियन को साथ लाऐं।
नाना से बात करने का तो सवाल ही नहीं था । पप्पा ने गोपाल वाकणकर को पटाया। वह उस समय BSc कर रहा था । आखिर वह मान गया ।
गार्डियन बन कर वह स्कूल पहुँचा। उसने प्रिंसिपल साहब को आश्वासन दिया कि पप्पा पाँचवीं का गणित का पेपर पास कर लेंगे। और वे भी मान गये। हालांकि वे नाना को जानते थे, लेकिन उन्होने पप्पा से कुछ साल बड़े इस गार्डियन के बारे में कोई सवाल नहीं किये। या शायद इसीलिये वे मान गये।
पप्पा ने ठाट से छटवी में जाना शुरू किया। पढ़ाई में शायद थोड़ा अधिक ध्यान देने लगे।
गणित का पेपर तो पास हो ही गये, साथ ही छटवी में भी बहुत अच्छे नंबर मिले।
लेकिन इस स्कूल में पप्पा बहुत जल्दी बोर हो गये।
यहाँ सिर्फ पढ़ाई ही पढ़ाई थी। पप्पा खेलने के बहुत शौकीन थे। फुटबॉल और हॉकी अच्छा खेला करते थे। उन्हें लगा कि इस स्कूल में उनका समय बरबाद हो रहा है।
छटवी का रिजल्ट ले कर PGV कॉलेज में पहुंच गये। PGV पाँचवी से इंटर तक था और खेलों के लिये प्रसिद्ध था। हर साल फुटबॉल का टूर्नामेंट ग्वालियर में बड़े जोर शोर से होता था। उसमें PGV की टीम महत्वपूर्ण होती। पप्पा को लगा वहाँ उनके लिये बहुत संभावनाएं हैं। पहले स्कूल के प्रिंसिपल बहुत नाराज हुए। उन्होंने टीसी देने से इनकार कर दिया। पर फिर जब पप्पा ने पढ़ाई ही छोड़ देने की धमकी दी तो उन्हें अनुमति देनी ही पड़ी।
नये स्कूल में पप्पा को तुरंत फुटबॉल की टीम में ले लिया गया। वे टीम के सबसे छोटे खिलाड़ी थे। वहाँ अधिकतर बच्चे खेलने वाले ही थे। पढ़ने- लिखने का कोई माहौल नहीं था। फुटबॉल की कोचिंग के लिये एक नया मास्टर हरियाणा से बुलवाया गया था। उसी ने पप्पा को टीम के लिये चुना था। वह सर पर हरियाणवी पगड़ी लगाते ,धोती पहनते और उनके पैरों में टेनिस के जूते होते। पूरे समय वे मास्टर खिलाड़यों के साथ-साथ चिल्लाते हुए दौड़ते।
मॅचेस् शुरू हुए। सामने की टीम बहुत तगड़ी थी।
मॅच से पहले मास्टर साहब ने पप्पा से कहा कि अपनी अकल मत चलाना ।मेरी तरफ देखते रहना और जो मैं कहूँ वही करना। मॅच के दौरान मास्टर जी भी आदत के मुताबिक जोर-जोर से चिल्लाते हुए सलाहें दे रहे थे और साथ-साथ दौड़ रहे थे। किसी क्षण बॉल पप्पा के पास थी और वे बेहद जोर से चिल्लाए “मार जोर से”
पप्पा ने जान लगा कर किक मारी और गोल हो गया। बस गड़बड़ इतनी हुई कि मारते समय उन्होंने ये नहीं देखा कि वे किस दिशा में गोल मार रहे हैं। मास्टरजी चिल्लाए मार और पप्पा ने गोल अपने ही गोल पोस्ट में मार दिया।
बाद में उनकी टीम बड़ी जी जान से खेली, लेकिन उस एक गोल से ही उनकी हार हुई। पप्पा अब बड़ा हँस हँस कर बताते हैं कि उस मॅच के बाद मैं और मेरा वह गोल दोनों ही ग्वालियर में बहुत प्रसिद्ध हो गये।
बाकी अगली बार….
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