बालकृष्ण निर्वीकर पप्पा के बहुत बचपन के मित्र थे। उनके पिता का देहांत उनके बचपन में ही हो गया था। उनकी मृत्यु के बाद पप्पा की माँ ने काका की माँ को घर चलाने में बहुत मदद की थी। जब तक जीवित रहीं, वे किसी न किसी प्रकार से उनकी सहायता करती रहती थीं। माँ ने बड़े कष्टों से उन्हें पाल पोस कर बड़ा किया था। पढ़ाया लिखाया। वे PWD में आर्किटेक्ट थे। भोपाल में नौकरी लगने के बाद, शादी होने तक पप्पा के घर में ही रहा करते थे। काकू बहुत ही सीधी साधी थीं और किसी स्कूल में नौकरी करती थीं। उनके कोई संतान नहीं थी। वे मुझे ही गोद लेना चाहते थे, ऐसा खुद उन्होंने ही मुझे बताया था। लेकिन उनके कहने पर कभी किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। काका की आई को सब आई ही कहा करते थे और वे पप्पा को अपने बेटे की तरह मानती थीं। उनका यह किस्सा बहुत मशहूर है। जब काका को पहली बार नौकरी लगी तो टेम्पररी थे। कुछ महीनों के बाद परमनेंट हो गये। उनकी आई बहुत खुश हुईं। सबको पेढ़े बाटते समय बतातीं कि “ बाल पहले टेम्परवारी था पर अब तो परमानंद हो गया।” पप्पा ने जब पहली बार कार खरीदी, तब उस जमाने में बहुत कम लोग कार का विचार भी कर सकते थे। उन्हें कुछ पैसे कम पड़ रहे थे। उधार लेने के तो वे सख्त खिलाफ थे। उन्होंने जिंदगी में कभी किसी से एक पैसे की भी मदद नहीं ली थी । बैंक से भी वे लोन लेना नहीं चाहते थे। और जितने पैसों की जरूरत थी, वह रकम भी कोई खास नहीं थी। काका पप्पा के भाई की तरह थे। सालों उनके साथ उनके घर में रहे थे। पप्पा को गाड़ी का मोह भी था ही। तो वो पप्पा, जिन्होंने अपने पिता से भी कभी एक पैसे की उम्मीद नहीं की थी, उन्होंने काका से पैसे की समस्या का सिर्फ जिक्र किया। काका ने शायद घर पर इस विषय में बात की होगी। उन्हें डर लगा कि कहीं पप्पा उनसे ही पैसे की उम्मीद ना करने लगें, इसलिए उसके बाद वे हर समय अपनी तंगहाली का जिक्र करने लगे। आखिर पप्पा ने बैंक से लोन लिया और सोचा कि कर्ज चुकता होने तक कुछ दिन टॅक्सी भी चलाएँगे। गाड़ी आने पर जैसे चारों तरफ सनसनी मच गई। कुछ लोग आश्चर्य से, तो कुछ प्रशंसा से और कुछ ईर्ष्या से पप्पा और गाड़ी को देखने लगे। पप्पा ज़ाहिर है बेहद खुश थे। वे बाल काका की आई को गाड़ी दिखाने और उनका आशिर्वाद लेने पहुँचे। लेकिन उन्होंने ऐसी बात कह दी कि जिससे सारी खुशी में कड़वाहट भर गई। जब पप्पा ने मिठाई दे कर उनके चरण स्पर्श किये तो वे बोलीं “राजा चैन करायची असेल तर स्वत:च्या जिवावर करावी, कर्जाच्या पैशांने नाही।” (राजा, ऐश करनी हो तो खुद के पैसों से करनी चाहिये, उधार के पैसे से नहीं?) शायद कोई और व्यक्ति होता, तो इस बात को अनसुनी कर देता, या यूँ ही मजाक में उड़ा देता। लेकिन पप्पा जैसे अति स्वाभिमानी व्यक्ति को यह बात मुँह पर तमाचे जैसी लगी। हालांकि जल्दी ही टॅक्सी चला कर पप्पा ने बैंक के पैसे चुका दिए। लेकिन उन्हें ये बात इतनी चुभी थी और इतना दुखी कर गई थी, कि वे इसे जिंदगी भर नहीं भूले। काका हमारे घर रोज आते थे। कभी-कभी तो ऑफिस जाने से पहले और बाद में दोनों बार आते। हम भी अक्सर उनके घर जाते। हम तीनों बच्चों से उन्हें बेहद लगाव था। सालों वे हमारी जिंदगी का एक हिस्सा रहे। तंबाकू खाने की लत उनकी वैसी ही बनी रही। बहुत सालों बाद जब मनीषा मेडिकल के पहले या दूसरे साल में थी, तब उसे ही अचानक एक दिन ये खयाल आया कि काका का वजन कम होता जा रहा है। उसके पूछने पर पता चला, कि उनके गले में चुभता रहता है, जिसकी वजह से वे खाना नहीं निगल पा रहें हैं। मनीषा उन्हें तुरंत अपने साथ अपने शिक्षक डॉ.त्रिवेदी के पास ले गई। काका को गले का कॅन्सर हो गया था। वे टाटा अस्पताल मुंबई से ऑपरेशन करा कर लौटे। उनकी हालत सुधरने की बजाय बिगड़ती ही गई। जब ऐसा लगने लगा कि वे अब नहीं बचेंगे, तब उन्होंने पप्पा पर यह जिम्मेदारी डाली कि वे उनकी आई को जा कर यह खबर बताएँ। पप्पा ने आई को समझा कर बताया, कि बाल के गले में किस तरह की बीमारी हो गई है, और वह बहुत अधिक बढ़ चुकी है। उसका बचना अब बहुत मुश्किल है। आई कुछ देर चुप रहीं। उन्हें काका कि हालत का थोड़ा बहुत अंदाज तो था ही। फिर अचानक बोलीं “बचपन से ले कर आज तक तो हमेशा तेरा गला खराब रहता था। तुझे हमेशा खाँसी और टाँसिल्स होते थे। फिर ये बीमारी तुझे ही क्यों ना हुई। मेरे बाल को ही क्यों हुई?” पप्पा बेचारे एकदम सन्न रह गये। क्या कहते? उन्होंने इसे उनका पुत्र प्रेम, उससे होने वाले वियोग का दुःख वगैरह समझ लिया। (या ऐसा खुद को समझाना चाहा) लेकिन इस बात का आश्चर्य उन्हें हमेशा रहा। आई सदैव उन्हें अपना बेटा कहतीं। किंतु मन ही मन शायद वे हमेशा उनकी और काका की तुलना करती रहतीं थीं। काका का जीवन सीधा-सरल और एक लीग पर था। जबकि पप्पा हर समय कोई ना कोई नया साहस करते रहते। इसलिये उन्हें असफलताओं के साथ-साथ अक्सर सफलताएं भी मिलतीं। उनके जीवन का ग्राफ तेजी से ऊपर चढ़ रहा था। जब पप्पा असफल होते तो आई को पूरी सहानुभूति होती। लेकिन उनकी हर सफलता से उनके मन में थोड़ी सी कड़वाहट आ जाती। कार वाली घटना के समय भी शायद यही हुआ था। लेकिन इस बात का मुझे हमेशा आश्चर्य होता है, कि जब उन्हें इस बात का पता चला कि अब काका नहीं बचेंगे,तब वे काका,काकू या खुद के भविष्य के बारे में भी सोच सकती थीं । लेकिन उनके मन में पहला खयाल यह आया, कि ये बीमारी अगर किसी को होनी ही थी, तो वह पप्पा को क्यों ना हुई। काका उसके बाद करीब महीने भर में ही चल बसे। उनके बाद आई भी बहुत दिनों तक जीवित नहीं रहीं। बाकी अगली बार...
We come across such strange personalities. And we fail to understand the reasons behind that.
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